श्यामकी सुरति करै। चौक परति कछु तनु सुधि आवति जहां तहँ सखि सुनति ररै तब यह कहति कहौ मैं इनिसों भ्रमि भ्रमि वनमें वृथामरै॥ सूरश्यामके रस पुनि छाकति वैसेही ढंग बहुरि ढरै॥६५॥ नट ॥ तरुणी श्यामरस मतवारि। प्रथम जोवन रस चढायो अतिहि भई खुमारि॥ दूध नहिं दधि नहीं माखन नहीं रीतो माट। महारस अंग अंग पूरण कहां घर कहां वाट॥ मात पितु गुरुजन कहांको कौन पति को नारि। सूरप्रभुके प्रेम पूरन छकि रहीं ब्रजनारि॥६६॥ रामकली ॥ गोरसलेहुरी कोउ आइ। द्रुमनिसों यह कहति डोलति कौन लेइ बुलाइ॥ कबहुँ यमुनातरिको सब जातिहै अकुलाइ। कबहुँ वंसीवट निकट जुरि होति ठाढी धाइ॥ लेहु गोरसदान मोहन कहां रहे छपाइ। डरनि तुम्हारे जाति नाहीं लेत दह्यो छिड़ाइ॥ मांगिलीजै दान
अपनो कहतिहै समुझाइ। आइहौ पुनि रिस करत हरि दह्यो देत वहाइ॥ एक एकहि पात बूझत कहां गए कन्हाइ। सूर प्रभुके रंग राची जीव गयो भरमाइ॥६७॥ जैतश्री ॥ बैठिगई मटुकी सब धरिकै। यह जानत अबहींहै आवत ग्वाल सखा सँग हरिकै॥ अंचलसों दधिमाट दुरावति दृष्टिगई तहां परिकै। सबनि मटुकिया रीती देखी तरुनी गई भभीरकै॥ कहि कहि उठीं
जहां तहँ सबमिलि गोरस गयो कहुँ ढरिकै। कोउ कोउ कहै श्याम ढरकायो जानदेहुरी जरिकै॥ यहिमारग कोऊ जिनि आवहु रिसकरि चली डगरिकै। सूर सुरति तनुकी कछु आई उतरत काम लहरिकै॥६८॥ नट ॥ चकृतभई घोषकुमारि। हम नहीं घर गई तबते रही विचारि विचारि॥ घरहिते हम प्रात आई सकुचिवदन निहारि। कछु हँसति कछु डरति गुरुजन देतिह्वै
हैंगारि॥ जो भई सो भई हम कह रही इतनी नारि। सखासंग मिलि खाइदधि तबही गए बनवारि॥ इहांलौंकी बात जानति यह अचंभो भारि। इहै जानति सूरके प्रभु गए शिर कछुडारि॥॥६९॥ धनाश्री ॥ श्यामविना यह कौन करै। चितवतही मोहनी लगावत नेक हँसनिपर मनहि हरै॥ रोकिरह्यो प्रातहि गहि मारग लेखो करि दधि दान लियो। तनुकी सुधि तबहीं ते भूली कछु पढिकै शिर नाइदियो॥ मनके करति मनोरथ पूरण चतुरनारि एहिभांति कहै। सूरश्याम मन हरचो हमारो तेहिविनु कहु कैसे निवहै॥७०॥ मन हरिसों तनु घरहि चलावति। ज्यों गजमत्त जाल अंकुशकर घर गुरुजन सुधि आवति॥ हरिरसरूप इहै मद आवत डरडारयो जुमहावत। गेह नेह बंधन पगतारेयो प्रेम सरोवर धावत॥ रोमावली सूड विविकुच मनों कुंभस्थल छपिपावत। सुरश्याम केहरि सुनिकै जोवन गजदर्प नवावत॥७१॥ युवतीगई घर नेक नभावत
मात पिता गुरु जन पूछत कछु औरै और बतावत॥ गारीदेति सुनति नहिं नेकहु श्रवन शब्द हरि पूरे। नैननही देखत काहूको जो कह होहिं अधूरे॥ वचन कहति हरिहीके गुनको उतही चरण चलावै। सूरश्याम विन और नभावै कोउ जितनो समुझावै॥७२॥ सोरठ ॥ लोक सकुच कुलकानि तजी। जैसे नदी सिंधुको धावै तैसे श्यामभजी॥ मात पिता बहु वास दिखायो नेक
नडरी लजी। हारिमानि वैठे नहिं लागति बहुतै बुद्धि सजी॥ मानतनहीं लोक मर्यादा हरिकेरंग मजी। सूरश्यामको मिली चूने हरदी ज्यों रंग रजी॥७३॥ बारबार जननी समुझावति। काहेको तुम जहँ तहँ डोलति हमको अतिहि लजावति॥ अपने कुलकी खबरि करौधों सकुच नहीं जियआवति। दधिबेचहु घर सूधे आवहु काहे झेर लगावति॥ यह सुनिकै मनहर्ष बढ़ायो तब इक बुद्धि बनावति। सुनि मैया दधि माट ढरायो तेहि डर वात नआवति। जान देहि कितनो दधि डारयो ऐसे तब न सुनावति॥ सुनहु सूर यहि बात डरानी माता उरलै लावति॥
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दशमस्कन्ध १०