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दशमस्कन्ध-१० (२५३) - मेरे रसके केलि। कहत ब्रजनागरी ॥३०॥ अवलों कीन्ही कानि कान्ह अब तुमसों लरिहै । अधर नयन रसकोपि विराचि अनउत्तर करिहे। मोआगे को छोहरा जीत्यो चाहे मोहिं । काके बल इत | रातही देहुन नख भार तोहि कहत नंदलाडिले||३||चित वदन सुसकाइ हाथ दधि पूरन दोना। इत मुंदरी विचित्र स्तहि घनश्याम सलोना । आततामस तोहि ग्वालिनी में सब जानत आदि । खोटी करनी जाहि मेरेकी सोई करे उपादि । कहत बजनागरी ॥३२॥ तोहि नछांडों कान्ह दान तुमको नाह देहौं । विना कहे जलोग कहा काहूपतिऐहो । लाज नहीं तुम आवई बोलत जय सतराइ । कहूं कंस मुनि पाइहे गद्दत फिरडगे पाइ ॥ कहत नदलाडिले ॥ ३३ ॥ सुनत इसे नंदलाल ग्वारि जिय तामस मान्यो । सींच्यो अमृतवैन कोप कर्पत नहिं जान्यो । कहां वसतिही वावरी सुनहु नमुग्ध गवारि । ब्रजवासी कहा जानिहीं तामसको व्यवहारि ॥ कहत ब्रजनागरी ॥ ३४॥ जननी जन परिहयो तात कुलधर्म नशायो । गोपराइके गेह पुत्र नाम धरायो ।। इतनेते इतनो कियो साटी छांछि पिवाइ । तुमहि दोष नहिं लाडिले वोलो गुण क्यों नाइकढ़त नंदलाडिले ।।३५ ।। अविगति अगम अपार आदि नाही अविनासी । परमपुरुप अवतार माया जिनकीहे दासी । तुमहि मिले ओछेभए कहा रही कार मौन । तुम्हरे आगेन्या वह दुइ में ओछो कॉन। कहत वजनागरी ॥ ३६ ॥ इमहि ओछाई भई जवहि तुमको प्रतिपाले। तुम पूरे सब भांति मात पितु संकट घाले । कहा चलत उपरावटे अलहूं खिसी नगात । कंस । सोहदे पूछिये जिन पटहे सात ॥ कहत नंदलाडिले ॥ ३७ ।। कसकेश निग्रहों पुडुमिको भार सतारों । उग्रसेन शिरछत्र चमर अपने कर दारों । मथुरा सुरनि वसाइडौं असुर करौं यमहाथ ॥ | दनुन वदन विरदावली सांचो त्रिभुवननाथ ॥ कहत नजनागरी ।। ३८॥ तब न कंस निग्रह्यो पुहु मिको भार उतारयो । चोरीजायो मातु गोद गोकुल पगधारयो । अब बहुत बातें कही दही दूध | के मात । जो ऐसे बलवंतही मथुरा काहे नजात।। कहत नंदलाडिले ॥३९॥ जो जहाँ मधुपुरी बहार गोकुल नहिं ऐही । यह अपनो परताप नंद यशुमतिहि सुनहीं ॥ वचनलागि में है कियो यशमतिको पयपान । मोहिग्वार जान जानहू ग्वामिनि सुनहुं निदान।।कहत ब्रजनागरी ॥४०॥ हम ग्वाली तुम तरनि रूप रस रवि शशि मोह । तीनलोक परताप छत्र सिंहासन सौह ॥ गयो गवं गति ग्वालनी देखि चरित तेहि काल । हम अहीर ढीगे दई तुम जेमदन गोपाल ॥ और दिननते आज दहो हम उखाल्याई । देखत ज्योति विलास दई मुख वचन डिठाई ॥ कान्ह विलग जिन मानहु राखहु पिछलो नेहु । दही दूधकी को गर्ने कछु हमहू पते लेहु ॥ धन्य नंदको गेह धन्य गोकुल जहँ आये। धनि गोपनकी नारि जहां तुम रोकन धाये ॥ धनि पनि झगरो आजको इह मुख नाहिन पार । नंदनंदन पर कीजिये तन मन धन बलिदार ॥ तब ले दधि आगे धरयो कान्द लीजे जो भावे । खाइ जाइ मंजार कान एको नहिं आवे । हम अनखी या वातको लेत दानको नाउँ । सहन भावरहो लाडिले वसत एकही गाउँ । कहत नदलाडिले ॥ १३ ॥ अभरन दियो मँगाइ कियो गोपिन मनभायो। हिलि मिलि वढ्यो सनेह आपु करमाट उठायो ।। नंदनंदन छवि देखिक गोपिन वारो प्रान | कुंज केलि मनमें वसी गायो सूर सुजान ॥ ४२ ॥ ११६० ॥ विछावट जयहि कान्ह यह बात सुनाई। वजयुवती अति गई मुरझाई ।। कंस संहारन मथुरा जहाँ । बहुरी फिरि व्रजको नहिं ऐहो ॥ देव 'गर्भ वासही लीन्दी । तुमको गोकुल दरशन दीन्दों ।। नंद यशोदा अति तप कीन्हों। मोसों पुत्र । H