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% 3D --- - - (२५२) सूरसागर। ओद नके काज देहधरि आए छोटा ॥ गढि गढि मिलवत लाडिले भली नहीं यहश्यामा या धोखे । जिनि भूलहू हम समरथकी वाम।। कहत नंद लाडिले ॥ १५॥ तुम समरथकी वाम कहा काहूको करिहौ । चोरी जाती वेचि दान सब दिनको भरिहौ ॥ जो प्रभु देह नधरे दीन खल कौन उधारे कसकेशको गहै विघ्न ब्रजको को टारै ॥ १६ ॥ कहा निगम कहि ध्यावतो कहा मुनीजन धरते ध्यान । दरशपरस विननाम गुन को पावै पद निर्वान।। कहत ब्रजनागरी।।१६। जोपै दरशेन्च परस नाम गुण केलि कन्हाई । तुम निर्भयपद हेत वेदविधि इहै बताई ॥योग युक्ति तप ध्यावही तिनगति कौन दयाल । जलतरंग ज्यों मीनगति विधे कमके जाल ॥ कहत नँदलाडिले ॥ १७॥ जटाभस्म तनुदहै वृथा करि कर्म बंधावै। पुहुमि दाहिनी देहि गुफा बसि मोहिं नपावै ॥ तनिअभिमान जोगा वहीं गदगदसुरहि प्रकाश । तासु मगनहौ ग्वालिनी ता घट मेरो वास ॥ कहत बजनागरी ॥१८॥ जूपै चाहिलै श्याम करत उपहास घनेरो । हम अहीरि गृह नारि लोक लज्जाके जेरो ॥ तादिन हमभई बावरी दियो कंठते हार। तबते घर घेरा चल्यो श्याम तुम्हारोजार॥कहत नंदलाडिले १९॥ सखा सबनि मिलि कह्यो ग्वारि एक बात सुनावै । तो तनु ज्योति सुभाउ रूप उपमाको पावै॥ गुप्त प्रीति विधना करी रसिक साँवरेयोग । यह विचार सुनि ग्वारिनी न्याउ हँसगो लोग । कहत ब्रजनागरी॥२०॥ऐसी वातै कान्ह कहत हमसों काहते। चोरीखाते छांछि नयन भरिलेत गहेत।दित । उरहनोरावरे बछरा दावरि जोरािजननी ऊखल वांधती हमही देती छोरि ॥ कहत नंदलाडिल॥२१॥ बालकरूप अंजान कहा काहू पहिचानै । अनउत्तर कोउकहै भलीअनभली नमान।।वह दिन सुमिरौ आपनो न्हानि यमुनके पानि । सब मिलि मो हाहा करी वस्त्र हरयो मैं जानि ॥ कहत ब्रज नागरी ॥ २२ ॥ बहुत भएहौ ढीठ देत मुख ऊपर गारी । जेहि छानै तेहि केही इहां कोउ दासि तुम्हारी ॥ तुमसों अब दधिकारने कौन बढ़ावै गरि । काहेको इतरातही रोकि पराई ॥ नारि कहत नंदलार्डले ॥ २३ ॥ लियो उपरना छीनि दूरि डारनि अटकायो । दियो सखनि दधि वाटिमाट पुहुमी ढरकायो । फेंट पीतपट साँवरे करपलाशके पात । हँसत परस्पर ग्वाल सब विमल विमल दधि खात।कहत ब्रजनागरी ॥ २४ ॥ कान्ह बहारि न देहु दही काहेको माते । वसिये येकहि गाउँ कानि राखतिहैं ताते ॥ तब नकछू पनिआईहै जब विरचैं सब नारि । लरिकनिक वर करत यह पुनि धरि लाड उतारिकहत नदलाडिले॥२६॥गहि अंचल झकझोरि तोरि हारावलि डारी। मटकी लई उतारि मोरि भुज कंचुकि फारीलिलै ठाढे ग्वार सब दोना एक एक हाथाखात जात दधि दूध लै हँसत.मिलै इक साथ।कहत ब्रजनागरी ॥२६॥ झीनी कामार कान कान्ह ऐसी नहिं कीजै। काच पोत गिर जाइ नंदघर गयौ नपूज।। विनही लीने आपियै सो कामारको तोल । लाख मुंदरिया । जाइगी कान्ह तुम्हारोमोलोकहत नंदलाडिले॥२७॥शिव विरंचि सनकादि आदितिनहूं नहिं जानी शेश सहसफन थक्यो निगमकी रति न वखानी ॥ तेरी सों सुनि ग्वालिनी इहै मेरे मन माह । भुवन चतुर्दश देखिए वा कामरि की छांह । शेष नपायो अंत पुहुमि जाकी फनवारी ॥ पवन बुहारत द्वार सदा शंकर कुतवारी॥ धर्मराज जाकी पवार सनकादिक प्रतिहार । मेघ छयान वैकोटि सब जल ढोवहिं प्रतिवार।कहत ब्रजनागरी ॥२८॥ जिनहि इतो परताप गाइ सो कतहि. चरावै । परद्वारा जाइ आषु कत लज्जापावै ॥ घरके वाढे रावरे बातें कहत बनाइ । ग्वारनिपै. लै खातहैं जूठी छाक छिनाइकहत नंदलाडिले॥२९॥धेिनु रूपमम देह करत कौतूहल न्यारे । गोकुल गुप्त विलास जानि को सकै हमारे।यावृंदावन वारिनी जित सित अमृत बलिहूता। लोकमें गाइये