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(२९०) न न चोरावै । क्यों गोपिनको आफु जनावै।। भुना उलूखल नहीं वधावै । जमलामोक्ष कौन विधि पावै ॥५॥ सो प्रभु दधिदानी कहवावै । गोपिनको मारग अटकावै ॥ करिलेखो कै दान सुनावै ।। आपुन खीझै उनहिं खिझावै ॥६॥ ब्रजवासी जो धन्य कहावै । जहां श्याम दधि दान लगावैः ।। मांगि सात आनंद वढावै । युवतिनसों कहि कहि परुसावै ।। ७॥ तेई हरि नटवर वपु काछे । मोर मुकुट पीतावर आछेग्विालसखा ठाठे सब पाछे। सूरश्याम गोपिन सुख साछ॥८॥१९॥सुही यह महिमा येईपै जाने । योग यज्ञ तप ध्यान न आवत सो दधि दान लेत सुखमानै । खात पर स्पर ग्वालन मिलिक मीठो कहि कहि आपु वखाने । विश्वभर जगदीश कहावत तेदधि दोना माँझ अघाने ॥ आपुहि हरता आपुहि करता आपु वनावत आपुहि भाने । ऐसे सूरदासके स्वामी ते गो पिनके हाथ विकाने ॥५०॥ रामकली ॥ धनि वडभागिनी वजनारि । खात लै दधि दूध माखन प्रगट जहां मुरारि ॥ नहीं जानत भेद जाको ब्रह्मा अरु त्रिपुरारि । शुक सनक मुनि येउ न जानत निगम गावत चारि ॥ देखि सुख ब्रजनारि हरिसँग अमर रहे भुलाइ । सूर प्रभुके चरित अगनित वरनि कापै जाइ॥९॥विलावलाजवनिता यह कहति श्यामसों माखन दूध दह्योअरल्यावमिटुकि निते हम दहिँ साहु तुम देखि देखि नैनर्नि सुखपावै॥गोरस बहुत हमरे घर पर दान पाछिलो लेहु । खायो जौन दान आजुहिको मांगतहै सब देहु ।। सवै लेहु राखहु जिनि वाकी पुनि नपाइहो मांगे आजहिलेहु सबै भरिदैहैं कहति तुम्हारे आगे ।। कह्यो श्याम अब भई हमारी मनहि भई परती ति । जव चैहैं तब मांगि लेहिगे हमर्हि तुम्हेंभई प्रीति ॥ वेचहु नाइ दूध दही निधरक वाट वाट डर नाही । सुरश्याम वशभई ग्वारिनी जात वनत घरनाहीं ॥ ५२ ॥ टोडी ॥ सुनहु सखी मोहन कहा कीन्हों। येक येक सों कहति वात यह दान लियो की मन हरि लीन्हों। यहतौ नाहिं वदी हम उनसों बूझहु धौं यह वात । चकृतभई विचार करत यह विसरि गई सुधि गाताउमचि जाति तवहीं सब सकुचति बहुरि मगनद्वैजाति । सूरश्याम सों कहौं कहा यह कहत न वनत लजाति ॥५३॥धनाश्री श्याम सुनहु एक वात हमारीढिीठो बहुत कियो हम तुमसों सो बकसो हार चूक हमारी।।मुख जो कही कटुक सब वानी हृदय हमारे नाहीं । हँसि हँसि कहति खिझावति तुमको अति आनंद मनमाहीं। दधि माखनको दान और जो जानो सबै तुम्हारो। सूर श्याम तुमको सब दीनों जीवनप्राण हमारो॥५४॥ नंदकुमार कहा यह कीन्हौं । बूझति तुमहि कहाँ धौं हमसों दान लियो की मन हरिलीन्हौं । कछू दुराव नहीं हम राख्यो निकट तुम्हारे आई। येते पर तुमही अब जानौं करनी भली बुराई । जो जासों अंतर नाह राखै सो क्यों अंतर राखै । सूरश्याम तुम अंतर्यामी वेद उपनिषद भाषे ॥ ५५ ॥ोही। सुनहु वात युवती इक मेरी तुमते दूरि होत नहिं कतहूँ तुम राखौ मोहि घेरी | तुम कारण वैकुंठ तजतहाँ जनमलेत बजआई ।। वृंदावन राधा सँग गोपी यह नहिं विसरयो जाई।तुम अंतर अंतर कहा भापति एक प्राण द्वै देह। क्यों राधा ब्रज वसे विसारयो सुमिरि पुरातन नेह ।। अव घर जाहु दान में पायो लेखो कियो नजाइ । सूरश्याम हँसि हँसि युवतिनसों ऐसी कहत वनाइ ॥५६॥नटा घर तनु मनाहि विना जाता। आपु हँसि हँसि कहतहौजू चतुरईकी. वात ॥ तनहि परहै मनहि राजा जोइ करै सोइ होइ। कहाँ पर हम जाहि कैसे मनधरयो तुम गोइ ।। नयन श्रवन विचार सुधि बुधि रहे मनहि लुभाइ जाहि अवही तनहि लै घर परत नाहिन पाइ ॥ प्रीतिकरि दुविधा करी कुत तुमहि जानौ नाथ। सुरके प्रभु दीजिये मन जाइँ घरलै साथ ॥१७॥ कानरो॥ मन भीतरहै वास हमारो। हमको। % 3D nce %3Da