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दशमस्कन्ध-१०


मटुकीको खायो तुम्हरो कैसे लागत॥ लैआई वृषभानुसुता हँसि सदलौनी है मेरो। लै दीन्हों अपने कर हरिमुख खात अल्प हँसि हेरो॥ सबहिनते मीठो दधिहै यह मधुरे कह्यो सुनाइ। सूरदास प्रभु सुख उपजायो ब्रज़ललना मनभाइ॥ रामकली ॥ मेरे दधिको हरि स्वाद नपायो। जानत इन गुजरिनिको सोलयो छिडाइ मिलि ग्वालनि खायों। धौरीं धेनु दुहाइ छानिपय मधुर आंच मैं अवटि सिरायो॥ नई दोहनी पोंछ पखारी धरि निर्धूम खीरनि परतायो। तामें मिाले मिश्रित मिश्रीकरि दैकपूर पुट जावन नायो॥ सुभग ढकनिया ढांपि वांधि पट जतन राखि छीके समदायो॥ हौं तुम कारण मैं आई गृह मारगमें नकहूं दरशायो। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि कियो कान्ह ग्वालनि मन भायो॥४२॥ नट ॥ गोपिन हेतु माखन खात। प्रेमके वश नंदनंदन नेक नहीं अघात॥ सबै मटुकी भरी वैसेहि प्रेम नहीं सिरात। भाव हृदये जान मोहन खात माखन जात॥ एकनिकर दधि दूध लीने एकनि करि दधि जात। सूर प्रभुको निरखि गोपी मनहि मनहि सिहात॥४३॥ विहागरो ॥ गोपी कहति धन्य हम नारि। धन्य दूध धनि दधि धनि माखन हम परुसति जेंवत गिरिधारि॥ धन्य घोष धनि निशि धनि वह धनि धनि गोकुल प्रगटे बनवारि। धन्य सुकृत पाछिलो धन्य धाने धन्य नंद यशुमति महतारि॥ धनि धनि ग्वाल धन्य वृंदावन धन्य भूमि यह अति सुखकारि। धन्य दान धनि कान्ह मँगैया धन्य सूर तृण द्रुम वन डारि॥४४॥ नट ॥ गण गंधर्व देखि सिहात धन्य ब्रजललनानि करते ब्रह्म माखन खात॥ नहीं रेख नरूप नहिं तनु बरन नहिं अनुहारि। मात पितु दोऊ न जाके हरतमरत नजारि॥ आपु करता आपु हरता आपु त्रिभुवन नाथ। आपुही सब घटके व्यापी निगम गावत गाथ॥ अंगप्रति प्रति रोम जाके कोटि कोटे ब्रह्मड। कीट ब्रह्म प्रयंत जल थल इनहिते यह मंड॥ विश्व विश्वंभरन एई ग्वालसंग बिलास। सोइ प्रभु दधि दान मांगत धन्य सूरजदास॥४५॥ रामकली ॥ कंसहेतु हरि जन्म लियो। पापहि पाप धरा भई भारी तब हम सबनि पुकारकियो॥ शेषसैन जहँ रमा संग मिलि तहां अकाश भई यह बानी। असुर मारि भुवभार उतारौं गोकुल प्रगटौं आनी॥ गर्भदेवकीके तनु धरिहौं यशुमतिको पय पीहौं। पूरव तप बहु कियो कष्टकार इनिको बहुत ऋनीहौं॥ यह बानी कहि सूर सुरनको अब कृष्णा अवतार। कह्यो सबनि ब्रज जन्म लेहु सँग हमरे करहु विहार॥४॥ गौरी ॥ ब्रह्म जिनिहि यह आयसु दीन्हो। तिन तिन संग जन्म लियो ब्रज में सखी सखा करि परगट कीन्हों॥ गोपी ग्वाल कान्ह दोइ नाहीं ये कहु नेक नन्यारे। जहां जहाँ अवतार धरत हरि ये नहिं नेक बिसारे॥येकै देह बिहार करि राखे गोपी ग्वाल मुरारि। यह सुख देखि सूरके प्रभु को थकित अमर सँगनारि॥४७॥ गौरी ॥ अमरनारि स्तुति करै भारी।क्षएकनिमिष ब्रजवासिन को सुख नहिं तिहुँ भुवन विचारी॥ धन्य कान्ह नटवर वषु काछे धन्य गोपिका नारी। एक एकते गुण रूप उजागरि श्याम भावती प्यारी॥ परुसति ग्वारि ग्वार सब जेंवत मध्य कृष्ण सुखकारी। सूरश्याम दधि दानी कहि कहि आनँद घोषकुमारी॥४८॥ विलावल ॥ धन्य कृष्ण अवतार ब्रह्म लियो। रेख नरूप प्रगट दरशन दियो॥ जल थलों कोउ और नहीं वियो। दुष्टन वधि संतनिको सुख दियो॥१॥ जो प्रभु नरदेही नहिं धरते। देवै गर्भ नहीं अवतरते॥ कंससोक कैसे उर टरते। मात पिता दुरितक्यों हरते॥२॥ जो प्रभु ब्रजभीतर नहिं आवै। नंद यशोदा क्यों सुख पावै॥ पूरवतप कैसे प्रगटावै। वेदवचन कैसे ठहरावैं॥३॥ जो प्रभु भेष धेरै नहि बालक। कैसे होइ पूतना घालक॥ अंगुठा पिवत शकट संहारक। तृणा अकास शिलापर डारक॥४॥ जो प्रभु ब्रजमाख

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