सुनि पावैं तब ताहीको पूजो॥ कहा नाउँ केहि गाँउ बसतहै ताहीके ह्वैरहिए। सूरदास प्रभु कहै बनेगी झूठे हमहि निदरिए॥२१॥ मोसों सुनहु नृपतिको नाउँ। तिहूं भुवन भरि गम्यहै जाको नर नारी सब गाउँ॥ गण गंधर्व वश्यवाहीके अवर नहीं सरिताहि॥ उनकी स्तुति करौं कहांलगि मैं सकुचतहौं जाहि॥ तिनहीको पठयो मैं आयो दियो दानको वीरा। सूररूप जोबन धन सुनिकै देखत भयो अधीरा॥२२॥ गौरी ॥ पाई जाति तुम्हारे नृपकी जैसे तुम तैसे वो उहौं कहां रहे दुरिजाइ आजुलौं एई ढंग गुणके सोऊहैं। यह अनुमान कियो मनमें हम येकहि दिन जनमें दोऊहैं। चोरी अपमारग वटपारयो इनि पटतरके नहिं कोऊहैं॥ श्याम बनी अब जोरी नीकी सुनहु सखी मानत तोऊहैं। सूरश्याम जितने रंग काछत युवती जन मनके गोऊहैं॥२३॥ ठगति फिराति ठगिनी तुम नारी। जोइ आवति सोइ सोइ कहडारति जाति जनावति दै
दै गारी॥ फँसिहारिनि बटपारिनि हम भई आपुन भए सुधर्मा भारी। फंदा फाँसिकमानबानसो काहूडारत देख्यो मारी॥ जाकेमन जैसोई बरतै मुखवानी कहिदेत उधारी। सुनहु सूर प्रभुनी के जान्यो ब्रज युवती तुम सब वटपारी॥२४॥ सुही ॥ अपने नृपको इहै सुनायो। ब्रजनारी वटपारिनि हैं
सब चुगली आपुहि जाइ लगायो॥ राजा बड़े बात यह समुझी तुमको हमपर धौंस पठायो। फँसि हारिनि कैसे तुम जानी तुम कहुँ नाहिंन प्रगट देखायो॥ ब्रजबनिता फँसिहारी जो सब महतारी काहे न गनायो॥ फंदा फांसि धनुष विष लाडू सूरश्याम नाह हमहिं बतायो॥२५॥ भैरव ॥ फंदा फांसि बतावहु जौ। अंगनि धरे छपाइ जहां जो प्रगट करौ सब दीहौं तौ॥ प्रथमहि शीश मोहिनी डारति ऐसे ताहि करत वशहौ। विषलाडू दरशावति ले पुनि देह दशा पुनि विसरति ज्यो॥ ता पाछे फंदागर डारति एहिभांतिनि करि मारतिहौ। सुनहु सूर ऐसे गुण तुम्हारे मोसों कहा उचारतिहौ॥२६॥ प्रगट करौ यह बात कन्हाई। बान कमान कहां केहि मारयो काके गर हम फांसि लगाई॥ काके शिर पढ़ि मंत्र दियो हम कहां हमारे पाशदिनाई। मिलवत कहां कहांकी बातैं हँसत कहति अतिगई सकुचाई॥ तब मानैं सब हमहुँ बतावहु कहो नहीं जो नंद दोहाई। सूरश्याम तब कह्यो सुनहुगी एक एक करि देउँ बताई॥२७॥ रागिनी ॥ मोसों कहा दुरावति नारी। नयनशयन दै चितहि चुरावति इहै मंत्र टोना शिरडारी॥ भौंह धनुष अंजन गुन वान कटाक्षनि डारति मारि। तरिवन श्रवन फांसि गर डारति कैसेहुँ नहीं सकत निरवारि॥ पीन उरोज मुख नैन चखावति इह विष मोदक जानत झारि। घालति छुरी प्रेमकी वानी सूरदासको सकै सँभारि॥२८॥ टोडी ॥ अपनोगुण औरनि शिरडारत। मोहन योबन मंत्र यंत्र टोना सब तुमपर वारत॥ तनुत्रिभंग अंग अंगमरोरनि भौंह बंक करि हेरत। मुरली अधर बजाइ मधुर सुर तरुनी मृगवन घेरत॥ नटवर भेष पीतांबर काछे छैलभए तुम डोलत। सूरश्याम रावरे ढंगए अवरनिको ढँगबोलत॥२९॥ जानी बात मौन धरि रहिए। इहै जानि हमपर चढि आए जो भावै सो कहिए॥ हम नहिं विलग तुम्हारो मान्यो तुम जनि कछु मन आनो। देखहु एक दोइ जनि भाषहु चारि देखि दुइगानो॥ दोबल देति
सबै मोहीको उन पठयो मैं आयो। सूर रूप जोबनकी चुगली नैननि जाइ सुनायो॥३०॥ विलावल ॥ तब रिसकरिकै मोहिं बोलायो। लोचन दूत तुमहिं इहि मारग देखत जाइ सुनायो। सोइ सब महलनते सुनि बानी जोबन महलनि आयो। अपने कर वीरा मोहिं दीन्हो तुरत मोहिं पहिरायो॥ बैठ्यो है सिंहासन चढिकै चतुराई उपजायो। मनतरंग आज्ञाकारी भृत सौतिनको तुमही
लगायो॥ तिनको नाम अनंग नृपतिवर सुनहु बात सुखपायो। सूरश्याम मुखबात सुनत यह
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दशमस्कन्ध-१०