मर्यादा घटावति कबहुँ दैहै गारि। प्रातते झगरो पसारो दानदेहु निवारि॥ बडे घरकी बहू बेटी करति वृथा झवारि। सूर अपनो अंश पावै जाहिं घर झखमारि॥९९॥ सारंग ॥ तुमहि उलटि हमपर सतराने। जो कछु हमको कहन बूझिए सो तुम कहि आगे अतुराने॥ यह चतुराई कहा पढी हरि थोरे दिन अति भये सयाने। तुमकोलाज होतकी हमको बात परै जोकहुँ महरनि॥ ऐसो दान और पै मांगहु जो हमसों कहौ छविछाने। सूरदास प्रभु जानदेहु अब बहुरि कहौगे कालि विहानै॥११००॥ श्यामहि बोलि लियो ढिग प्यारी। ऐसी बात प्रगट कहुँ कहिये सखनि मांझ कत लाजन मारी॥ एक ऐसेहि उपहास करत सब तापरतुम यह बात पसारी। जातिपांति के लोग हँसिहिंगे प्रगट
जानिहै श्याम भतारी॥ लाजन मारतहौ कत हमको हाहा करति जाति बलिहारी। सूरश्याम सर्वज्ञ कहावत मात पितासों द्दावत गारी॥१॥ जबहि ग्वारि यह बित सुनाई। सखा सबनि तबहीं लखि लीन्ही सदा श्यामके प्रकृत सुभाई॥ सुनहुँ ग्वारि इकवात सुनावों जो तुम्हरे मन आवै। तुम प्रति अंग अंगकी सोभा देखत हरिसुख पावै॥ तुम नागरी नवल नागर वे दोऊ मिलि करौ विहार। सूरश्यामश्यामा तुम एकै कहा हँसिहै संसार॥२॥ नट ॥ नंदसुवन यह बात कहावत। आपुन जोबन दान लेतहै तापर जोइ सोइ सखनि कहावत॥ वैदिन भूलिगए हरि तुमको चोरी माखन खाते। खीझतही भरिनयन लेतहै डरडरात भजि जाते॥ यशुमति जब ऊखलसों बानधति हमही छोरति जाइ। सूरश्याम अब बडे भयेहौ जोबनदान सुहाइ॥३॥ टोडी ॥ लरिकाईकी बात चलावति। कैसी भई कहा हम जानै नेकहु सुधि नहिं आवति॥ कब माखन चोरी करि खायो कब बांधेधौं मया। भले बुरेको मात पिता तन हरषतही दिन जैया॥ अपनी बात खबरि कार देखहु न्हात
यमुनके तीर। सूरश्याम तव कहत सबनिके कदम चढाए चरि॥४॥ गूजरी ॥ सबै रही जलमांझ उघारी। बार बार हाहाकरि थाकी मैं तट लिये हँकारी॥ आई निकसि बसन बिनुतरुनी बहुत करी मनुहारि। कैसे हास भए तब सबके सो तुम सुरति बिसारि॥ हमहि कहति दधि दूध चुराये अरु बांधे महतारी। सूरश्यामके भेद वचन सुनि हँसि सकुचीं ब्रज नारी॥५॥ कहाभए अति ढीठ कन्हाई। ऐसी बात कहत सकुचत नहिं कहाधौं अपनी लाज गवाई॥ जाहु चले लोगनिके आगे झूठी वाणी कहत सुनाई। तुम हँसि कहत ग्वाल सुनिकै सब घर घर कैहैं जाई॥ बहुत होहुगे दशहि वरसके बात कहतहौ बनै बनाई। सूरश्याम यशुमतिके आगे इहै बात सब कैहैं जाई॥६॥हमीर ॥ झूठीबात कहा मैं जानौं। जो हमको जैसेही भजेरी ताको तैसेहि मानौं। तुम पति कियो मोहिको मनदै मैंहौं अंतर्यामी
योगीको योगी ह्वै दरशौं कामीको है कामी॥ हमको तुम झूठे करिजानति तौ काहे तप कीन्हो। सुनहु सूर अब निठुर भई कत दान जात नहिं दीन्हों॥७॥ गौरी ॥ दान सुनत रिस होइ कन्हाई। और कहौ सो सब सहि लेहैं जो कछु भली बुराई॥ महतारी तुम्हरीके वै गुण उरहन देत रिसाई। तुम नीके ढंग सीखे बनमें रोकत नारि पराई। आवन जावन पावत कोऊ तुम मगमें घटवाई। सूरश्याम हमको विरमावत खीझत वहिनी माई॥८॥ काहेको तुम झेर लगावति। दानदेहु घर जाहु बेचि दधि तुमहीको यह भावति॥ प्रीति करो मोसों तुम काहेन वनिज कराति ब्रजगाउँ। आवहु जाहु सबै यहि मारग लेत हमारो नाउँ॥ लेखौ करौ तुमहि अपने मन जोइ देहो सोइ लेहौं। सूर सुभाइ चलहुगी जब तुम पुनिधौं मैं कहौं कहौं॥९॥ कान्हरो ॥ सुनहु आइ हरिके गुण माई। हम भई वनिजारिनि आपुन दानि भए कुँवर कन्हाई॥ कहा वनिज लै आई धौं हम ताको मांगत दान। कालि हिके ढँग पुनि आएहैं नहिं जानत कछु आन॥ तुम गँवारि एही मग आवति जानि बूझि गुण
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दशमस्कन्ध-१०