लकुट कंचनको॥५९॥ विलावल ॥ यह कमरी कमरी करि जानति। जाके जितनी बुद्धि हृदय में सो तितनी अनुमानति॥ या कमरीके येक रोमपर वारौं चीर नील पाटंबर। सो कमरी तुम निंदति गोपी जो तीनिलोक आडंबर॥ कमरीके बल असुर संहारे कमरिहते सब भोग। जाति पांति कमरी सब मेरी सूर सबहि यह योग॥६०॥ विलावल ॥ धनि धनि यह कामरिहो मोहन श्यामलालकी। इहै ओढि जात बनहि इहै सेज करतहो तुम मेह बूंद निरवारन इहै छांह घामकी॥ इहै उठि गुन करतहै पुनि शिशिर शीत इहै हरति गहनेलै धरति ओट कोट वामकी। इहै जाति इहै पाति परिपाटी यह सिखवात सूरदास प्रभुके यह सब विशरामकी॥६१॥ अब तुप सांची बात कही। एतेपर युवतिनको रोंकत मांगत दान दही॥ जो हम तुमहि कह्यो चाहतही सो श्रीमुख प्रगटायो। नीके जातिं उघारि आफ्नी युवतिन भले हँसायो॥ तुम कमरीके ओढनहारे पीतांबर नहिं छाजत। सूरदास कारे तनु ऊपर कारी कमरी भ्राजत॥६२॥ मोसों बात सुनहु ब्रजनारि। एक उपखान चलत त्रिमुवनमें तुमसों आजु उघारि॥ कबहूँ बालक मुँह नदीजिये मुँहनदीजिये नारि। जोइ मनकरै सोई करिडारै मूँड चढतहै भारि॥ बात कहत अठिलात जाति सब हँसत देति कर
तारि। सूर कहा ए हमको जानै छाछिहि वेचन हारि॥१०६३॥ यह जानति तुम नंदमहरसुत। धेनु दुहत तुमको हम देखति जबहि जात खरिकहि उत॥ चोरी करत रहौ पुनि जानात घर घर ढूंढत भांडे। मारगरोकि भये अव दानी वैढँग कबते छाँडे॥ और सुनहु यशुमति जब बांधे तब हम कियो सहाइ। सूरदास प्रभु यह जानति हम तुम ब्रजरहत कन्हाइ॥६४॥ आसावरी ॥ को माता को पिता हमारे। कब जनमत हमको तुम देख्यो हँसी लगत सुनि बात तुम्हारे॥ कंब माखन चोरी करि खायो कब बांधे महतारी। दुहत कौनकी गैया चारत बात कही यह भारी तुम जानति मोहिं नंद ढुटौना नंद कहां ते आए। मैं पूरन अविगति अविनाशी माया सबनि भुलाए॥ यह सुनि ग्वालि सबै मुसकानी ऐसेउ गुणहौ जानत। सूरश्याम जो निदरयो सबही मात पिता नहिं मानत॥६५॥ सोरठ ॥ तुमको नंदमहर भरुहाए। माता गर्भ नहीं तुम उपजे तौ कहौ कहांते आए॥ घर घर माखन नहीं चुरायो ऊखल नहीं बँधाए। हाहाकरि यशुमतिके आगे तुमको हमहि छुराये॥ ग्वालनि संग संग वृंदावन तुम नहिं गाइ चराये। सूरश्याम दशमास गर्भधरि जननि नहीं तुम जाये॥ ६६॥ ठोडी ॥ भक्तहेतु अवतार धरयो। कर्म धर्मके वश मैं नाहीं योग जप मैंने नकरयो॥ दीनगुहारि सुनौ श्रवणनि भरि गर्व वचन सुनि हृदय जरौं। भाव अधीन रहौं सबहींके और नकाहू नेकडरौं॥ ब्रह्मकोटि आदिलौं व्यापक सबको सुखदै दुखहिहरौं। सूरश्याम तब कही प्रगटही जहां भाव तहँते नटरौं॥॥६७॥ धनाश्री ॥ कान्ह कहांकी बात चलावत। स्वर्ग पताल एक करि राखौ युवतिनको कहि कहा बतावत॥ जो लायक तौ अपने घरको वनभीतर डरपावत। कहा दान गोरसको ह्वैहै सबै नलेहु देखावत॥ रीती जान देहु घर हमको यतनेही सुखपावत्त। सूरश्याम माखन दधि लीजै
युवतिन कत अरुझावत॥६८॥ माखन दधि कह करौं तुम्हारो। मैं मनमें अनुमान करौं नित मोसों कैहै वनिज पसारो॥ काहेको तुम मोहिं कहतहौ जोबन धन ताको कार गारो। अब कैसे घर जान पाइहौ मोको यह समुझाइ सिधारौ॥ सूर बनिज तुम करत सदाई लेखो करिहौं आजु तिहारो॥ सूहवी ॥ ऐसी कहौ बनिजको अटकी। मुख मुख हेरि तरुनि मुसकानी नैन सैन दै दै सव मटकी॥ हमहू कह्यो दान दधिको कहा माँगत कुँवर कन्हाई। अबलौं कहा मौन
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दशमस्कन्ध-१०
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