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सूरसागर।


तुम दान मारे जाति॥ कालिंद्री तट श्याम बैठे हमहिं दियो पठाइ। यह कह्यो हरि दान माँगहु जाति नितहि चुराइ॥ तुम सुता वृषभानुकी वै बड़े नंदकुमार। सूर प्रभुको नाहिं जानति दान हाट बजार॥४९॥ कान्हरो ॥ यह सुनि हँसीं सकल ब्रजनारी। आनि सुनहरी बात नई इक सिखयेहैं महतारी॥ दधि माखन खैबेको चाहत मांगि लेहु हम पास। सूधे वात कहौ सुखपावैं बांधन कहत अकास॥ अव समुझी हम बात तुम्हारी पढ़े एक चटशार। सुनहु सूर यह बात कहौ जिनि जानति नंदकुमार॥५०॥ धनाश्री ॥ बात कहति ग्वालिनि इतराति। हम जानी अब वाति तुम्हारी सुधे नहिं वतराति॥ इहै बडो दुख गाँव वासको चीन्हे कोड नसकात हरिमांगतहै दान आपनों कहत मांगि किनखात॥ हाट वाट सब हमहि उगाहत अपनो दान जगात। सूरदासको लेखो दीजै कोउ नकहै पुनि वात॥५१॥ कान्हरो ॥ कौन कान्हको तुम कहा मांगत। नीके करि सबको हम जानति बातैं कहत अनागत॥ छांडिदेहु हमको जनि रोकहु वृथा बढावति रारि। जैहै बात दूरिलौं ऐसी परिहै वहुरि खँभारि॥ आजहि दान पहरि ह्याँ आए कहां दिखावहु छाप। सूरश्याम वैसेहि चलौ ज्यों चलत तुम्हारो बाप॥५२॥ कान्हरो ॥ कान्ह कहत दधिदान नदैहौ। लेहौं छीनि दूध दघि माखन देखतही तुमरैहो॥ सब दिनको भरि लेहुँ आजुही तब छोडौं मैं तुमको। उघटतिहै तुम मात पितालौं नहिं जानो तुम हमको॥ हम जानतिहैं तुमको मोहन लैलै गोद खिलाए। सुरश्याम अब भए जगाती वैदिन सब विसराए॥५३॥ अजहूं मांगिलेहु दधि देहौ। दूध दही माखन जो चाहो सहज खाहु सुख पैहौं॥ तुम दानी ह्वै आए हमपर यह हमको नहिं भावत। करौ तहीं लै निबहै जोई जाते सबसुख पावत॥ हमको जान देहु दधि वेचन पुनि कोउ नाहिन लैहै। गोरसलेत प्रातही सबको उ सूर धरयो पुनि रैहै॥५४॥ कान्हरो ॥ दान दिये विन जान नपैहौ। जब देहौं ढराइ सब गोरस तबहिं दान तुम देहौ॥ तुमसों बहुत लेनहै मोको यह लै ताहि सुनावहु। चोरी आवति वेचि जातिसब पुनि गोरस बहुरो कहँ पावहु॥ मांगत छाप कहा दिखराऊं कोनहिं हमको जानत। सूरश्याम तब कह्यो ग्वारिसों तुम मोको क्यों मानत॥५५॥ रामकली ॥ कहा हमहि रिसकरत कन्हाई। इहरिस जाइ करौ मथुरापर जहां है कंस बसाई। हम अब कहा जाइ गुहरावैं वसत तुम्हारे गाउँ। ऐसे हाल करत लोगनके कौन रहै यहिठाउँ॥ अपने घरके तुम राजाहौ सबको राजा कंस। सूरश्याम हम देखत ठाढे अब सीखे एगंस॥५५॥ गंधारी ॥ कापर दान पहिरि तुम आए। चलहु जु मिलि उनहीमें जैए जिन तुम रोकन पंथ पठाए। सखासंग लीन्हे जु सेंति के फिरत रैनि दिन बनमें धाए। नाहिन राज कंसको जान्यो वाट रोकते फिरत पराए॥ लीन्हे छीनि बसन सबहीके सबही लै कुंजनि अरुझाए। सूरदास प्रभुके गुण ऐसे दधिक माट भूमिढरकाए॥ ५७॥ सूहा ॥ जाइ सबै कंसहि गुहरावहु। दधि माखन घृत लेत छँडाए आजुहि मोहि हजूर वोलावह॥ ऐसेको कह मोहिं वतावति पल भीतर गहिमारौं। मथुरापतिहि सुनोगी तुमही जब वाके धरि केश पछारौं॥ वार वार दिन हमहि बतावत अपनो दिन न विचारो। सूरइंद्र ब्रज तबहिं वहावत तब गिरि राखिउबारो॥५८॥ गूजरी ॥ गिरिवर धरयो आपने घरको। ताहीके बल तुम दान लेतहौ रोंकि रहतही हमको॥ अपनेही मुख बडे कहावत हमहू जानति तुमको। इह जानाति पुनि गाइ चरावत नितप्रति जातहौ वनको॥ मोर मुकुट मुरली पीतांबर देखो आभूषन सब वनको। सूरदास कांधे कामरिहू जानात हाथ