यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२३९)
दशमस्कन्ध-१०


हमारे मारग इह कहियो समुझाई। सुरश्याम माखन दधि दानी यह सुधि नाहिन पाई॥४०॥ श्याम सखन ऐसो समुझावत। ब्रजवनिता ललितादिक इनको देखि बहुत सुख पावत॥ कालि जात यहि मारग देखी तब यह बुद्धि उपाई। अब आवति ह्वै हैं बनि बनि सब मोहीसों चितलाई॥ तुमसों कछू दुरावत नाहीं कहत प्रगट करि बात। सुनह सूर लोचन मेरे विनु राधा मुख अकुलात॥॥४१॥ ब्रजयुवती मिलि करति विचार। चलो आज़ प्रातहि दधि वेचन नित तुम करति अघार। तुरत चलो अबहीं फिरि आवैं गोरस वेचि सवारैं। माखन दधिघृत साजति मटुकी मथुरा जान विचारैं॥ षटदशसहस श्रृंगार करतिहैं अंग अंग सब निरखि सँवारती। सूरदास प्रभु प्रीति सबनिकी नेक न हृदय विसारति॥४२॥ धनाश्री ॥ युवती अंग श्रृंगार सँवारति। वेनी ग्रंथि मांग मोतिनकी शीशफूल शिर धारति॥ गोरे भाल विंद सेंदुरपर टीका धरयो जराउ। वदन चंद्र पर रवि तारागण मानों उदित सुभाउ॥ सुभग श्रवण तरिवन मणि भूषित यह उपमा नहिं पार। मनहुँ काम विविफंद बताए कारण नंदकुमार॥ नासा नथ मुकुताकी शोभा रह्यो अधर तट जाई। दाडिम कनशुक लेत वन्यो नहिं कनक फंद रह्यो आई॥ दमकत दशन अरुण धरणीतर चिबुक टिठौना भ्राजत। दुलरी अरु तिलरी वंदतापर सुभग हमेल विराजत॥ कुच कुंचकी हार मोतिन अरु भुजन विजयठे सोहत। डारन चुरी करन फुंदनावनि कंज पास अलि जोहत॥ क्षुद्रघंटिका कटि लहँगा रंग तन तन सुखकी सारी। सूर ग्वालि दधि वेचन निकरी पग नूपुर ध्वनि भारी॥४३॥ नटनारायणी ॥ दधि वेचन चली ब्रजनारि। शीश धरि धरि माट मटुकी बड़ीशोभा भारि॥ निकसि ब्रजके गई गोंडे हरप भई सुकुमारि। चलीं गावति कृष्णके गुण हृदय ध्यान विचारि॥ सबनके मन जो मिलैं हरि कोउ न कहति उघारि। सूर प्रभु घट घटके व्यापी जानि लई वनवारि॥४४॥ जयतश्री ॥ हरि देखी युवती आवति जब। सखन कह्यो तुम जाइ चढौ द्रुम बैठिरहौ दुरि जहां तहां सब॥ चढ़े सबै द्रुम डार ग्वाल गण सुनत श्याम सुख वानी। धोखे धोखे रहे सबै हम श्याम भली यह जानी॥ नवसत साजि श्रृंगार युवति सब दधि मट़की लिये आवत। सूरश्याम छवि देखत रीझे मन मन हरप बढ़ावत॥४५॥ धनाश्री ॥ सखा और संग लिये कन्हाई। आपुन निकसि गये आगेको मारग रोक्यो जाई॥ यहि अंतर युवती सब आई बनलाग्यो कछु भारी। पाछे युवति रही तिन टेरत अबहिं गई तुमहारी॥ तरुणी जुरि यक संग भई सब इत उत चलीं निहारत। सूरदास प्रभु सखा लिये सँग ठाढ़े इहे विचारत ॥४६॥ गौरी ॥ ग्वारिन तब देखे नँदनंदन। मोर मुकुट पीतांबर काछे खौरि किये तनु चंदन॥ तब यह कह्यो कहाँ अब जैहौ आगे कुँवर कन्हाई। यह सुनि मन आनंद बढ़ायो मुख कहैं बात डराई। कोउ कोउ कहति चलौरी जाई कोउ कहै फिरि घर जाइ। कोउ कोउ कहति कहा करिहै हरि इनको कहाँ पराइ॥ कोउ कोउ कहति कालिही हमको लूटिलई नँदलाल। सूरश्यामके ऐसे गुणहैं घरहि फिरो ब्रजवाल॥४७॥ सोरठ ॥ ग्वालन सैन दियो तब श्याम। कूदि कूदि सब परहु द्रुमनते जात चली घर वाम॥ सैन जानि तब ग्वाल जहां तहँ द्रुम द्रुम डार हलाए। वेनु विपान शंख मुरली ध्वनि सब एक शब्द बजाए॥ चकृत भई तरु तरु प्रति देखति डारनि डारनि ग्वाल। कूदि कूदि सब परे धरणिमें घेरि लई ब्रजवाल॥ नितप्रति जात दूध दाधि वेचन आजु पकरि हम पाई। सूरश्यामको दान देहु तब जैहों नंद दोहाई॥४८॥ नट ॥ ग्वारिनि यह भली नहिं करति। दूध दधि घृत नितहि वेचति दान देते डरति॥ प्रातही लै जाति गोरस बेचि आवति राति। कहौ कैसे जानिये