अब चली जातिको। चकृत भई मैं तुमहि कहत अनमिलत बातकी॥ जैसी मोसों कहतिहौ को सुनिक पतिआइ। कौन प्रकृति तुमको परी मोहिं कहौ समुझाइ॥६॥ अहो यशोदा बात कालिकी सुनी कि नाहीं। वंशीबटकी छांह गही हरि मेरी वाहीं। हौं सकुचनि बोली नहीं बहु सखियनकी भीर। गहि बहियां मोहिं लैचले हंससुताके तीर॥७॥ येरी मदमत ग्वालि फिरति जोवन मदमाती। गोरस बेचन हारि गूजरीअति इतराती॥ अनमिलती बातैं कहति सुनिपैहै तेरो नाँह। कह मोहन कह तूरहै कबहि गही तेरी वाँह॥८॥ सांची सब मैं कहति झुठ नहिं कहिहौं तुमसों। सुतकी राखति कानि विलग मानतिहौ हमसों॥ कुंजनमें क्रीडा करै मनु
वाहीको राज। कंस सकुच नहिं मानई रहत भयो शिरताज॥९॥ ऐसी बातैं कहति मनहुँ हरि बरष तीसको। दुसह सह्यो नहिंजाइ नैक डर करहु ईशको॥ धनि धनि तुम यह कहतिहो मोको आवै लाज। माखन मांगत रोइकै तेहि दोष देत विन काज॥१०॥ हरि जानन हैं मंत्र यंत्र सीखो कहुँ टोना। वनमें तरुण कन्हाई घरहि आवत है छोना॥ एक दिवस किन देखहू अंतर रहौ छपाइ। दशकोहै धौं वीसको नैननि देखौनाइ॥११॥ जाहु चली घर आपने नैननि भरि हमदेख्योहै। तीस वीस दश वरष एक दिन सब लेख्योहै॥ डीठि लगावति
कान्हको जरैं वरैं वै आंखि। धींगरी धींग चाचरि करै मोहिं बुलावति साखि॥१२॥धींग तुम्हारो पूत धींगरी हमको कीन्ही। सुतको हटकति नाहिं कोटि इक गारी दीन्हीं॥ महतारी सुत दोउ बने वेमग रोकत जाइ। इनहिं कहन दुख आइये ये सबको उठति रिसाइ॥१३॥ कहाकरौं तुम बात कहूंकी कहूं लगावति। तरुणिन इहै सोहात मोहिं कैसे यह भावति॥ बहुत उरहनो मोहिं दियो अब ऐसो जनि
देहु। तुम तरुणी हरि तरुण नहिं मन अपने गुणिलेहु॥१४॥ निरउत्तर भई ग्वालि बहुरि कह कछू नआयो। मन उपज्यो कछु लाज गुप्त हरिसों चितलायो॥ लीला ललित गोपालकी कहत सुनत सुखदाइ। दान चरित सुख देखिकै सूरदास बलिजाइ॥१५॥१०३६॥ रामकली ॥ नंद नँदन इक बुद्धि उपाई। जेजे सखा प्रकृतिके जाने ते सब लए बोलाई॥ सुबल सुदामा श्रीदामा मिलि और महर सुत आए। जो कछु मंत्र हृदय हरि कीन्हौं ग्वालन प्रगट सुनाए॥ ब्रजयुवती नित प्रति दधि वेचन बनि बनि मथुरा जाति। राधा चंद्रावलि ललितादिक बहु तरुणी यक भांति॥ कालिंदी तट कालि प्रातही द्रुम चढि रहौ लुकाइ। गोरस लै जबहीं सब आवैं मारग रोकहु जाइ॥ भली बुद्धि इह रची कन्हाई सखनि कह्यो सुख पाई। सूरदास प्रभु प्रीति हृदयकी सब मन गए जनाई॥॥३७॥ प्रातहि उठी गोप कुमारि। परस्पर बोलीं जहां तहाँ यह सुनी वनवारि॥ प्रथमही उठि सखा आये नंदके दरबार। आइये उठिकै कन्हाई कह्यो वारंवार॥ ग्वाल टेर सुनत यशोदा कुँवर दियो जगाइ। रहे आपुन मौन साधे उठे तब अकुलाइ॥ मुकुट शिर कटि कसि पीतांबर मुरली लीन्ही हाथ। सूर
प्रभु कालिंदी तट गए सखा लीने साथ॥३८॥ रामकली ॥ भली करी उठि प्रातहि आए। मैं जानत सब ग्वारि उठी जब तब तुम मोहिं बोलाए॥ अब आवति ह्वैहै दधि लीन्हे घर घरते ब्रजनारी। हँसे सबै करतारी दैदै आनँद कौतुक भारी॥ प्रकृति प्रकृतिके जे सब राखे संगी पांच हजार। और पठाइ दिये सूरजप्रभु जेजे अतिहि कुमार॥३९॥ विलावल ॥ हँसत सखनि यह कहत कन्हाई। जाइ चढ़ौ तुम सघन द्रुमनि पर जहँतहँ रहौ छिपाई॥ तबलौं बैठिरहौ मुँह मूंदे जब जानहु अब आई। कूदिपरोगे द्रुमनि द्रुमतिते दैदै नंद दोहाई॥ चकित होहिं जैसे युवती गंण डरनि जाहिं अकुलाई। वेनु विषान मुरलि ध्वनि कीज्यो शंख शब्द घहनाई॥ नितप्रति जाति
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सूरसागर।