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(२३६)
सूरसागर।


जुलै हौं तिन रीझत मन अनंग को। जेहरि पगजु करयो गाढे मनो मंद मंद गति यह मतंग को। जोबन रूप अंग पाटंबर सुनह सूर सब यह प्रसंग को॥२०॥ टोड़ी ॥ अरी यह ढीठ कान्ह बोलि न जाने बरवस झगरो ठानै। जो भावत सोइ सोइ कहि डारत ऐसो निधरक नहिं कहूं देख्यो रूप जोबन अनुमानै॥ अंग अंगके दान लेत नहिं घर के को पहिचानै। हम दधि बेचन जातिहैं मथुरा मारग रोकि रहत गहि अंचल कंसकी आन न मानै॥ ऐसी बात संभारि कहौ हरि हम तुमको पहिचानै। सूरश्याम जो हमसों मांगत सो पैहौ कहूँ और त्रियनपै ये बातैं गढ़ि वाने॥२१॥॥ मलार ॥ तोहिं कमरी लकुटिया भूलि गई पीत वसन दुहुँ करनवलासी। गोकुलकी गाइनिचरैवो छोंडि दीन्हौं कीन्हौं नवलबधू संग नवल नेह आयो परम विसासी॥ गोरस चोराइ खाइ वदन दुराइ राखै मन न धरत वृंदावन को मवासी। सूरश्याम तोहिं घर घर सब जानै इहां कोहै तिहारी दासी॥२२॥वै बातें भूलिगई नंदमहरके सुवन करत हौ अचगरी। बन बन धेनु चरावत फिरत निशि बासर धावत बैन बजावत दानी भए गहि डगरी॥ बनमें पराई नारि रोकि राखी बनवारी जाननहीं देत ह्यांकौन ऐसी लंगरी। मांगत योबनदान भलेही जू भले कान्ह मानत कंसआन कोबसिहै ब्रजनगरी। कबहुं गहत दधि मटुकी अचानक कबहुं गहतहो अचानक गगरी॥ सुरश्याम जहँतहाँ खिझावत जो मनभावत दूरि करौ लंगर सगरी॥२३॥ पूरवी ॥ तुम कबते भयेहो जू सूरश्याम दानी। मटुकी फोरि हार गहि तोरयो इन बातन पहिचानी॥ नंदमहरकी कान करतिहौ नातर करती मेहमानी। भूलिगए सुधि तादिनकी जब बांधे यशोदारानी। अबलौं सही तुम्हारी ढीठो तुम यह कहत डरानी। सूरश्याम कछु करत नबनिहै नृप पावै कहुँ जानी॥२४॥ दधि मटुकी हरि छीनिलई। हार तोरि चोली बंद तोरयो जोवन कैवल ढीठ भई॥ ज्योंहीं ज्यों हम सूधे बोलत हो त्यों त्यों अतिही सतरगई। वाद करति अबहीं रोवहुगी बार बार कहि दई दई॥ अंश परायो देहु न नीके मांगत ही सब करत खई। सूर सुनहुँ मैं कहत अजहुँलौं प्रीति करहु जो भई सो भई॥२५॥ काफी ॥ कन्हैया हार हमारो देहु। दधि लवनीघृत जो कछु चाहौ सो तुम ऐसहि लेहु॥ कहाकरैं दधि दूध तिहारो मोसों नाहीं काम। जोवनरूप दुराइ धरयोहै ताको लेति न नाम॥ नीके मनह्वै मांगत तुमसों वैर नहीं उर नाखति। सूर सुनहरी ग्वारि अयानी अंतर हमसो राखात॥२६॥ गौरी ॥ हमको लाज न तुमहि कन्हाई। जो हम एहि मारग सब आई तौ तुम हमसों करत ढिठाई॥हाहाकरति पाँइ तुम लागति रीती मटुकी देहु मँगाई। काको वदन प्रातही देख्यो घरते हम छीकतहु न आई॥ उतही जातहि सखी सहेली मैंही सबको इतहि फिराई। सूरश्याम अधमई हमहि सब लागै तुमहि भलाई॥॥२७॥ विलावल ॥ मैं भरुहाये लागतहौं। कनक कलस रस मोहिं चखावहुँ जोमै तुमसों मांगतहा॥ वोही ढंग तुम रहे कन्हाई उठीं सबै झिझिकारि। लेहु अशीश सबके मुखते कतहि दिवावत गारि॥ नीके देहु हार दधि मटुकी बात कहन नहिं जानत। कैहैं जाइ यशोदासों प्रभु सूर अचगरी ठानत॥॥२८॥ हार तोरि विथराइ दियो। मैया पै तुम कहन चली कत दधि माखन सब छीनि लियो॥ रिसकार धाइ कंचुकी फारी अबतो मेरो नाउँ भयो। कालि नहीं एहि मारग पैहो ऐसो मोसों बैरठयो॥ भलीवात घरजाहु आज तुम मांगत जोवन दान नयो। सूरदास सुखही रिस युवतिन उर उर अंतर काम जयो॥२९॥ नट ॥ मोहिं तोहिं जानिवी नँदनंदन जब बृंदावनते गोकुल जैबो। सखिन कहति छीनिलै मेरी मटुकिया गारी दैबो॥ मुहँ मोरिबो बाउ अधिकाई सो लैबो, एक गाँउ