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दशमस्कन्ध १०


वाट यमुनातट रोकै। मारग चलत जहाँ तहँ टोकै॥ काहूकी गागरि धरि फोरै। काहसों हँसि वदन सकोरै॥ काहूको अंकम भरि भेटै। कामव्यथा तरुणिनके मेंटै। ब्रह्माकीट आदिके स्वामी प्रभुहैं निर्लोभी निहकामी॥ भाववश्य सँगही सँगडोलै। खेलै हँसे तिनहिसों बोलै॥ ब्रजयुक्ती नहिं नेक विसारैं। भवनकान चित हरिसोंधारैं। गोरसलै निकसीं ब्रजवाला। तिहाँतिनि देखे मदन गोपाला॥ अँग अँग सजि श्रृंगारवर कामिनि। चलीं मनहु यूथनि जुरि दामिनि॥ कटि किंकिनि नूपुरबिछि या धुनि। मनहु मदनके गजघंटा सुनि॥ जाति माट मटुकी शिरधारकै। मुख मुख गान करति गुण हरिके॥ चंद्रबदनि तनु अति सुकुमारी। अपने मन सब कृष्ण पियारी॥ देखि सबनि रीझे बनवारी। तब मनमें इक बुद्धि विचारी॥ अब दधि दान रचौं इक लीला। युवतिन संग करौं रस लीला॥ सूरश्याम सँग सखन बोलायो। यह लीला कहि सुख उपजायो॥१००५॥ जयतश्री ॥ सुनत हँसी सुख होहि दान दहीको लाग्यो। निशिदिन मथुरा दधि बेचैं श्याम दान अब मांग्यो। प्रात होत उठि कान्ह टेरि सब सखनि बोलाए। तेइ तेइ लीने साथ मिले जे प्रकृति बनाए॥ डगरि गए अनजानही गह्यो जाइ वन घाट। पेडपेड तरुके लगे ठाटि ठगनको ठाट॥१॥ इहां ग्वालि बनि बनि जुरीं सब सखी सहेली। शिरनि लिए दधि दूध सबै योवन अलबेली॥ हँसत परस्पर आपुमें चली जाहिं जिय भोर। जबहि आनि घातहि परी तब छेकिलिए चहुँओर॥॥२॥ देखि अचानक भीर भई सब चकृत किशोरी। ज्यों मृगसावक यूथ मध्य वागुरि चहुँओरी संकितह्वै ठाढ़ी भई हाथ पाँव नहिंडोल। मनहुँ चित्रकीसी लिखीं मुखहि न आवै बोल॥३॥ तब उठि बोले ग्वाल डरहु जिनि कान्ह दुहाई। ठग तस्कर कोउ नाहिं दान यदुपति सुखदाई॥ आवत निशि दिनही रहौ श्यामराज भए नाहीं। जोकछु लागै दानको तुम घाटि देहु तेहि माहीं॥४॥ तब हँसि बोली ग्वालि नाम जब कान्ह सुनायो॥ चोरी भरयो नपेट आनि अब दान लगायो॥ तब उलटी पलटी फवी जब शिशुरहे कन्हाई। अब ओहि कछु धोखे करौं तौ छिनकमाहँ पतिजाई॥५॥ तब उठि बोले कान्ह रही तुम पोच सदाई। महरि महर मुखपाइ संकतजि करहु ढिठाई॥ अब वह धोखो मेटिकै छांडिदेहु अभिमान। करि लेखो अब दानको दियहि पाइहौ जान॥६॥ तब हँसि बोली ग्वालि डरनि तुम तजी ढिठाई। बहुतै नंदनि काज भयो तुअ तप अधिकाई॥ कालिहि घर घर डोलते खाते दही चुराइ। राति कछू सपनों भयो प्रातभई ठकुराइ॥७॥ भली कही नहिं ग्वालि बातको भेद न पायो। पिता रचित धन धाम पुत्रके काजहि आयो॥ तुमसे प्रजा वसाइकै राखेहैं इह पाइ। ते तुम हम सरवस भई अब मिलहु छाँडि चतुराइ॥८॥ तब झुकि बोली ग्वालि बात किन कहौ सम्हारै। ऐसोको वहिगयो प्रजाहै वसे तुम्हारै॥ हमहूं तुम नृपकं सके वसैं वास इकठाँउ। देखौधौं घरजाइकै हम तजैं तुम्हारो गाउँ॥९॥ गाउँ हमारो छाँडि जाइ वसिहौ केहि केरे। तीनलोकमें कौन जीव नाहिन वशमेरे॥ कंसहि को गनती गनै जाके हमाह कहाहु॥ दियेदान पै वांचिहो नातरु नहीं निवाहु॥१०॥ छोटे मुँह बडीबात कहौ किनि आपु सँभारे। तीनिलोक अरु कंस कबहिं वशभए तुम्हारे॥ यह वाणी तिनसों कहो जो कोउ होइ अजान। ऐसे होहु जुरावरे हम जानति परवान॥११॥ लेखो जैहै भूलि कहूंकी बात चलावत। झूठी मिलवत आनि सुनत हमको नहिं भावत॥ हमसों लीजै दानके दाम सबै परखाइ। थैली मांगि पठाइए पीतांबर फटिजाइ॥१२॥ काहेको सतरात बात मैं सांची भाषत। झूठी सब तुम ग्वारि बात मेरी गहि नाखत॥ कह्यो मानि लेखो करौ देहु हमारो दान। सौंह बबा मोहिं

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