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दशमस्कन्ध-१०


प्रभु सबके स्वामी। शरन राखि मोहिं अंतर्यामी॥७०॥९९९॥ सोरठ ॥ तेरे भुजन बहुत बल होइ कन्हैया। बार बार भुज देखि तनकसे कहति यशोदा मैया॥ श्याम कहत नहिं भुजा पिरानी ग्वालन कियो सहैया। लकुटन टेकि सबन मिलिराख्यो अरु बाबा नँदरैया। मोसों क्यों रहतो गोवर्धन अति ह बडो वहभारी। सूरश्याम यह कहि परवोध्यो देखि चकृत महतारी॥१०००॥ देवगंधार॥ सबै मिलि पूजौ हरि की बहियॉ। जो नहिं लेत उठाइ गोवर्धन को बांचत ब्रज महियाँ। कोमल कर गिरि धरयो घोष पर शरद कमलकी छहियाँ। सूरदास प्रभु तुमरे दरशको आनँद होत ब्रज महियाँ॥१॥ अध्याय ॥२८॥ अथ नंदको वरुण लेगयेविलावल॥ उत्तम शुक्ल एकादशि आई। भक्ति मुक्ति दायक सुखदाई निराहार जलपान बिवर्जित। पाप नरहत धर्मफल अर्चित॥ नारायण हित ध्यान लगायो। और नहीं कहुँ मन बिरमायो॥ वासर ध्यान करत सब बीत्यो। निशि जागरण करन मन चीत्यो॥ पाटंबर दिवि मंदिर छायो। शालिग्राम तहां बैठायो॥ धूप दीप नैवेद्य चढ़ायो। पुहुप मंडली तापर छायो॥ प्रेम सहित करि भोग लगायो। आरतिकरि तब माथो नायो॥ सादर सहित करी नंद पूजा। तुम तजि देव और नहिं दूजा। तृतिय पहर जब रैनि गमाई। नंदमहरिसों कही बुझाई॥ दंड एक द्वादशी सकारै। पारनकी विधि करौ सवारै। यह कहि नंदगए यमुनातट। लै धोती विधि कीनो कर्म पट॥ झारी भरि यमुना जल लीनो। बाहिर जाइ देह कृत कीनो॥ लै माटी कर चरन पखारी। अति उत्तम सो करी मुखारी॥ अँचवन लै पैठे नंद पानी। जल बाजत दूतन तब जानी॥ वरुन पास लाये ततकालहि। नंदहि बाँधि लै गये पतालींह॥ जान्यो वरुण कृष्णके तातहि मनहीं मन हर्षित इहि बातहि॥ भीतर लै राखे नंद नीके। अंतरपुर महलन रानीके॥ रानी सबन नंदको देख्यो। धन्य जन्म अपनो करि लेख्यो॥ जिनके सुत त्रैलोक गुसांई। सुर नर मुनि सबके हैं। साई॥ वरुण कही मन हर्ष बढ़ाए। बड़ीबात भई नंदहि ल्याए॥ अंतर्यामी जानत बाता। अब आवत ह्वै हैं जगत्राता॥ जाको ब्रह्मा अंत न पायो। ताको मुनि जन ध्यान लगायो॥ जाको नेति निगम गावतहैं। ताको मुनिवर जन ध्यावतहैं॥ जाको ध्यान धरैं शिव योगी। ताको सेवत सुरपति भोगी॥ सो प्रभुहैं जल थल सब व्यापक। जोहै कंस दर्षको दापक॥ गुण अतीत अविगत अविनाशी। सो ब्रजमें खेलत सुखरासी॥ धनि मेरे भृत नंदहि ल्याए। करुणामय अब आवत धाए॥ महरि कही तब सब ग्वालिनको। बड़ी बार भई नंदमहरको॥ गए ग्वाल तब नंद बोलावन। देख्यो जाइ यमुन जल पावन॥ जहँ तहँ ग्वाल ढूँढि घर आए। धोती अरुझारी वै ल्याए॥ मन मन शोच करैं अकु लाए। कहि यशुदासों नंदन पाए॥ धोतीझारी तटमें पाई। सुनत महरि मुख गयो सुखाई॥ निशा अकेले आजु सिधाए। काहू धौं जलचर धरि खाए॥ यह कहि यशुमति रोइ पुकारयो। मों बरजत कत रैनि सिधारयो॥ ब्रजजन लोग सबे उठिधाए। यमुनाके तट नंद न पाए॥ वन वन ढूंढत गाउँ मझारै। नंद नंद कहि लोग पुकारैं। खेलत ते हरि हलधर आए। रोवत मात देखि दुखपाए॥ कत रोवत है यशुदा मैया। पूछत जननी सों दोउ भैया॥ कहत श्याम जनि रोवहु माता। अबहीं आवतहैं नंद ताता॥ मोसों कहिगए अबहीं आवन। रोवै मति मैं जात बोलावन॥ सबके अंतर्यामी हैं हरि। लैगयो बांधि वरुन नंदहि धरि॥ यह कारज मैं वाको दीनों। वाके दूतन नंदन चीनों॥ वरुन लोक तबहीं प्रभु आए। सुनत वरुन आतुर कै धाए॥ आनँद कियो देखि हरिको मुख। कोटि जन्मके गए सबै दुख॥ धन्य भाग्य मेरे बडे आजु। चरण कमल दरशन सुखकाजु॥ पाटंवर पाँबड़े डसाए। महलन बंदनवार बँधाए॥ रत्न खचित सिंहासन धारयो। तिहिपर कृष्णहि लै बैठारयो॥