प्रभु सन्मुख सब पहुँचे आनी॥ गर्जि गर्जिं घहरातहि आए। देव देव कहि माथ नवाए॥ सूरदास डरपत सब जलधर। हमपर क्रोध किधों काहू पर॥४४॥ चितवतही सब गए झुराई। सकुचि कह्यो कापर रिसपाई॥ क्षमाकरहु आयसु हमपावैं। जापर कहौ ताहिपर धावैं॥ सैनसहित प्रभु हमहि बोलाए। आज्ञा सुनत तुरत उठिधाए॥ ऐसो कवन जाहि प्रभु कोपे। जीवनाम सब तुम्हरेइ रोपे॥ सूर कही यह मेघन वानी। यह सुनि सुनि रिस कछुक भुजानी॥४५॥ मेघनिसों
बोले सुरराई। अहिरन मोसों करी ढिठाई॥ मेरी दीन्ही करत बडाई। जानिबूझि मोहिं दियो भुलाई॥ सदा करत मेरी सेवकाई। अब सेवत पर्वत कहँ जाई॥ इहीकाज तुमको हँकराये। भलीकरी सैना लियेआए। गाइ गोप ब्रज सवै वहावहु। पहिले पर्वत दोदि ढहावहु॥ जब यह सुनी इंद्रकी बानी। मेघन मन तब धीरज आनी॥ सूरदास यह सुनि घनतमके। कापर क्रोध करत प्रभु जमके॥४६॥ रिसलायक तापर रिसकीजै। यहिरिसते प्रभु देही छीजै॥ तुम प्रभु हमसे सेवक जाके। ऐसो कवन रहै तुम ताके॥ छिनहींमें ब्रज धोइ बहावैं। डूंगरको कहिं नाउँ
नपावैं॥ आपु क्षमा करिये देवराई। हम करिहैं उनकी पहुनाई॥ यह सुनिकै हरषित चित कीन्हों। आदर सहित पान कर दीन्हो॥ प्रथमहि देहु पहार वहाई। मेरी बलि वोही सब खाई॥ सूर इंद्र मेघनि समझावत। हरषि चले घन आदर पावत॥४७॥ आयसुपाइ तुरतही धाये। अपनी सैना सबनि बोलाये॥ कह्यो सबनि ब्रज ऊपर धावहु। घटाघोर करि गगन छपावहु॥ मेघवर्त जलवर्तक आगे। और मेघ सब पाछे लागे॥ गरजि उठे ब्रज ऊपर जाइ। शब्दकियो आघात सुनाइ॥ ब्रजके लोग डरे अतिभारी। आजु घटा देखतिहै कारी॥ देखत देखत अति अधिकायो नेकहि में रविगगन छपायो। ऐसे मेघ कबहुँ नहिं देखे। अतिकारे काजर अवरेखे॥ सुनहसूर एमेघ डरावन। ब्रजवासी सब कहत भयावन॥४८॥ गरजि गरज ब्रज घेरत आवै। तरपि तरपि चपला चमकावे॥ नर नारी सब देखतठाढे। ये वादर प्रलयके काढे॥ दरदरात घहरात प्रबल अति। गोपी ग्वाल भए और गति॥ कहा होन अवही यह चाहत। जहाँ तहाँ लोग इहै अवगाहत॥
खनभीतर सन वाहिर आवत। गगन देखि धीरज विसरावत॥ सूरश्याम यह करी पुजाई। तातेसुरपति चढ्यो रिसाई॥४९॥ फिरत लोग जहँतहँवितताने। कोहै अपने कौन बिराने॥ ग्वाल गए जे धेनु चरावन। तिनहि परयो बनमांझ परावन॥ गाइ वच्छ कोऊ नसँ भारै। जियकी सबको परी खँभारै॥ भागे आवत ब्रजही तनको। विपति परी अति बन ग्वालनको॥ अंध धुंध मग कहूं न सूझै। ब्रजभीतर
ब्रजहीको बूझै॥ जैसे तैसे ब्रज पहिचानत। अटक रही अटकर करि आनत॥ खोजत फिरैं आपने घरको। कहा भयो भैया घोष शहरको॥ रोवत डोलैं घरहि नपावैं। द्वार द्वार घरको बिसरावैं। सूरश्याम सुरपति बिसरायो। गिरिके पूजे यह फल पायो॥५०॥ यमुनाजलहि गई जो नारी। डारिचलीं शिर गागरि भारी॥ देखो मैं बालक कत छांड्यो। एक कहत भंगन दधि मांड्यो॥ एक कहत मारग नहिं पावति। एक सामुहे बोलि बतावति॥ ब्रजवासी सब अति अकुलाने। कालिहि पूज्यो फल्यो बिहानै। कहां रहे अब कुँवरकन्हाइ। गिरि गोवर्धन लेहि बोलाई॥ जेवन सहसभुजा धरिआवै॥ अब द्वैभुज हमको देखरावै। यह देवता खातही लोके। पाछे पुनि तुम कौन कहौके॥ सूरश्याम सपनों प्रगटायो। घरके देव सबनि विसरायो॥५१॥ गर्जत घन अतिही घहरावत। कान्ह सुनत आनंद बढ़ावत॥ कौतुक देखत ब्रजलोगनके। निकट रहत संगहि सँग जनके॥ यक सैंतत घरके सब बासन। लीने फिरत घरहिके पासन॥ येक कहत जियकी नहिं आसा। देखत सबै दुष्टके नाशा॥
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दशमस्कन्ध-१०