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सूरसागर।


सब मुख यह वाणी पर निंदति॥ बड़ो देव यह गिरि गोवर्धन। इहै कहत गोकुल ब्रज पुरजन॥ तहाँ दूत इक इंद्र पठायो। ब्रजकौतुक देखन वह आयो॥ घर घर कहत बात नर नारी। दूत सुन्यो सो श्रवण पसारी॥ मानत गिरि निंदत सुरपतिको। हँसत दूत ब्रजजन गई मतिको॥ सूरसुनत इतनी रिस पाये। उठि तुरतहि सुरलोकहि आये॥३९॥ ब्रह्मदई जाको ठकुराई। त्रिदशकोटि देवनके राई॥ गिरिपूज्यो तिनिही विसराइ। जाति बुद्धि इनके मनआइ॥ शिव विरंचि जाको कहैं लायक। जाके मैं मघवा से पायक॥ यह कहतहि आए सुरलोकहि। पहुँचे जाइ इंद्रके ओकहि॥ दूतन ऐसिय जाइ सुनाई। वैठे जहाँ सुरनके राई॥ करजोरे सन्मुख भे आई। पूछि उठे ब्रजकी कुशलाई॥ दूतन व्रजकी बात सुनाई। तुमहि मेटि पूज्यो गिरिजाई॥ तुमहि निदरि गिरिवरहि बड़ाई। इह सुनतहि रहे देह कँपाई॥ सूरश्याम इह बुद्धि उपाई। ज्यों जानै ब्रजमें यदुराई॥४०॥ ग्वालन मोसों करी ढिठाई। मोको अपनी जाति देखाई। तेतिसकोटि सुरनको राई॥ तिहूं भुवन भरि चलत बड़ाई॥ साहबसों जो करै धुताई। ताको नहिं कोऊ पतिआई॥ इनि अपनी परतीति घटाई। मेरे वैर वांचिहैं भाई॥ नईरीति इन अबहिं चलाई। काहू इनहि दियो बहिकाई॥ ऐसी मति इन अवकै पाई। काके शरन रहैंगे जाई॥ इन दीनो मोको विसराई। नंद आपनी प्रकृति गँवाई॥ जानी बात बुढ़ाई आई। अहिर जाति कोई न पत्याई॥ मात पिता नहिं मानै भाई। जानि बूझि इन करी धिंगाई॥ मेरी बलि पर्वतहि चढ़ाई। गिरिवर सहित ब्रजै बहाई॥ सूरदास सुरपति रिस पाई। कीडीतनु ज्यों पांख उपाई॥४१॥ मोको निदि पर्वतहि वंदत। चारौ कपट पंछि ज्यों फंदत॥ मरन काल ऐसी बुधि होई। कछू करत कछुवै वह जोई॥ खेलत खात रहे ब्रजभीतर। नान्हे लोग तनक धन ईतर॥ समय समय वरषौं प्रतिषालौं। इनकी बुद्धि इनको अब घालौं॥ मेरे मारत कौन राखिहै। अहिरनके मन इहै काषिहै॥ जो मन जाके सोइ फल पावै। नीव लगाइ आंब क्यों खावै॥ विषके वृक्ष विषहि फल फलिहै। तामे दाख कहौ क्यों मिलिहै॥ अग्निवर्त देखै करनावै। कहा करै तेहि अग्नि जरावै॥ सूरदास इह सब कोउ जानै। जो जाको सो ताको मान॥४२॥ पर्वत पहिले खोदि बहाऊं। ब्रजजन मारि पताल पाऊं॥ फूलि फूलि जेहि पूजा कीन्हों। नेक न राखौं ताको चीन्हों॥ नंद गोप नैनन यह देखैं। बड़े देवताको सुख पेषैं। निंदत मोहिं करी गिरि पूजा। जासों कहत और नहिं दूजा॥ गर्वकरत गोवर्धन गिरिको। पर्वत मांह आइ वह किरको॥ डोंगरिको बल उनहिं बताऊं। ता पाछे ब्रज खोदि बहाऊं॥ राखौंनहीं काहु सब मारौं। ब्रजगोकुलको खोजि निवारौं॥ को जानै कह गिरि कह गोकुल। भुवपर नहिं राखौं उनको कुल॥ सूरदास इह इंद्र प्रतिज्ञा। ब्रजवासिन सब करी अवज्ञा॥४३॥ सुरपति क्रोध कियो अतिभारी। फरकत अधर नैन रतनारी॥ भृतनि बोलाये दैदै गारी। मेघनि ल्यावो तुरत हँकारी। एक कहत धाए सौचारी। अति डरपे तनुकी सुधि हारी॥ मेघवर्त जलवर्त बोलावहु। सैन साजि तुरतहि लै आवहु॥ कापर क्रोध कियो अमरापति। महाप्रलय जिय जानि डरे अति॥ मेघनसों यह बात सुनाई। तुरत चलौ बोले सुरराई॥ सैन सहित बोलाए तुमको॥रिसकरि तुरत पठाए हमको॥ वेगि चलौ कछु विलम न लावहु। हमहि कह्यो अबहीं लै आवहु॥ मेघवर्त सब सैन्य बोलाए। महाप्रलयके जे सब आए॥ कछु हर्षे कछु मनहि सकाने। प्रलय आहि की हमहिं रिसाने॥ चूकपरी इमते कछु नाहीं। यह कहि कहि सब आतुर जाहीं॥ मेघवर्त्त जलवर्त वारिवर्त। अनिलवर्त्त वज्रवर्त प्रवर्त्त॥ बोलत चले आपनी वानी।