यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२२२) . सूरसागर। | गोपनकी वानी । ब्रज नर नारि सपन यह जानी ॥ ६॥नंदघरनि ब्रजबंधू बोलाई। यह सनिक तुरतहि सब आई. ॥ कौन काज हम महार हकारी । तुम नाहं जानत यौवन भारी॥ विहंसि कहति कहा देतिहौ गारी । सुरपति पूजा करो सवारी ॥ देखें हम सब सुरति विसारी। औरोहमहि बूझिएगा। यह सुनि हरषित भई नँदनारी । साखियन वचन कह्यो जब प्यारी ॥ सर इंद्र पूजा अनुसारी,। तुरत करौ सब भोग-सँवारी ॥७॥ घरनि चली सब कहि.यशमति सों। देव मनावति वचन विनति सो ॥ तुमविन और नहीं हम जानै । मुख मुख स्तुति करत वखाने । जहां तहां ब्रजमंगल गाने । बाजत ढोल मृदंग निसानै । बहुत भांति सब करे पकवान। नेवजकरि धार सांझ बिहानै । छुवत नहीं देवकाज सकाने । देवभोगको रहत. डेराने ॥ सूरदास हम सुरपति जानै । और कौन ऐसो जेहि माने ॥ ८ ॥ नंदमहर घर होत वधाई । करत सबै विधिदेव पुजाईनिवज करत यशोदा भातुर। अष्टौ सिद्धि परहि अतिचातुर।। मैदा उज्ज्वल कारकै छान्यो। बेसनदारि चनक करि वान्यो॥धृत मिष्टान्न सबै परिपूरन । मिश्रित करत पागको चूरन । कटुवा करत मिठाई घृत पक । रोहिणि करत अन्नभोजन तक संग और बजनारीलागी। भोजन करतेहैं बड़ी सभागी । महरि करत ऊपर तरकारी । जोरत सबविधि न्यारी न्यारी ॥ सूरदास जो मांगत जबहीं। भीतरते लेदेतहैं तवहीं ॥९॥महरि सबै नेवज लै सैतति । श्याम छुवै कहुँ ताको डरपति। कान्हहि कहति यहां जनि आवैलरकनको यह देव डरावै॥श्यामरहे आंगनहिँ डराईमन मनहँसत मात सुखदाई ॥ मैयारी मोहिं देव देखेंहै। इतनोभोजन सब वह खैहैं। यह सुनि खीझतिहै नँदरानी बार वार सुतसो बिरुझानी॥ ऐसी बात.नकहौ कन्हाई। तू. कत करत श्याम लॅगराई। कर जोरति अपराध छमावति। बालकको यह दोष मिटावति ॥ सूरदास प्रभुको नहिं जाने हसत चले मनमें नरिसानै ॥ १० ॥ युवती कहति कान्ह रिसपायो । जान देहु सुरकाज बतायो । बालक आइ छुवै कह भोजन । उनकी पूजा जानै को जन ॥ यह कहि कहि देवता मनावति । भोग सामग्री धरत उठावंति।। उनकी कृपा गऊगण घेरे । उनकी कृपाधाम धन मेरे। उनकी कृपा पुत्र फल पायो। देखहु श्यामहि खीझि पठायो ॥ सूरदास प्रभु अंतर्यामी । ब्रह्माकीट आदिके स्वामी ॥ ११ ॥ नंद निकट तब गए कन्हाई । सुनत बात तहँ इंद्र पुजाई । महर नंद उपनंद तहाँ सब । बोलिलिए वृषभानु महर तब ॥ दीपमालिका रचिरचि साजत । पुहुपमाल मंडली विराजत ॥ घरपसातके कुँवरकन्हाईखेिलत मन आनंद बढ़ाई।घर घर देति युवति जमहाथापूजा देखि हँसत ब्रजनाथांश: मो.. आगे सुरपतिकी पूजा । मोते. और देव को दूजा ॥ शतशत इंद्र रोमप्रति लोमनि । शतलोमनि मेरे इक रोमनि ।। सूरश्यामए मनसों वाते। लीनो भोग बहुत दिन जातें ॥१२॥ सुर पति पूजा जानि कन्हाई । वार वार बूझत नदराई ॥ कौन देवकी करत पुजाई । सो मोसों तुम कहौ बुझाई।महर कह्यो तब कान्ह सुनाई।सुरपति सब देवनके राई।तुमरे हित मैं करतपुजाई । जाते तुम रहो कुशल कन्हाई.॥.सूर नंद कहि भेद बताई। भीर बहुत घर जाहु सिखाई॥१३॥जाहु घर हि बलिहारी तेरी । सेज जाइ सोवो तुम मेरी ॥ मैं आवतहौं तुम्हरे पाछे । भवन जाहु तुम मेरे वाछे ॥ गोपन लीन्हें कान्ह बुलाई। मंत्र कहाँ एक.मनाहि समाई ॥ आज एक सपने कोउ आयो । शंखचतुर्भुज चारि बतायो।मोसों यह कहि कहि समुझायो।यह पूजा तुम किनहि सिखायो।सूरश्याम कहि प्रगट सुनायो।गिरि गोवर्धन देव बतायो॥१॥यह तब कहन.लगे दिवराई। इंद्रहिः पूजे कौन. बड़ाई।कोटि इंद्र हम छिनमें मागेछनहीमें फिरि कोटि सँवारें।जाके पूजे फल तुम पावहातादेवहि ।