गोपनकी बानी। ब्रज नर नारि सबन यह जानी॥६॥ नंदघरनि ब्रजबंधू बोलाई। यह सुनिकै तुरतहि सब आई॥ कौन काज हम महार हँकारी। तुम नहिं जानत यौवन भारी॥ विहँसि कहति कहा देतिहौ गारी। सुरपति पूजा करो सवारी॥ देखैं हम सब सुरति विसारी। औरो हमहि बूझिएगारी। यह सुनि हरषित भई नँदनारी। साखियन वचन कह्यो जब प्यारी॥ सूर इंद्र पूजा अनुसारी। तुरत करौ सब भोग सँवारी॥७॥ घरनि चलीं सब कहि यशुमति सों। देव मनावति वचन विनति सों॥ तुमविन और नहीं हम जानै। मुख मुख स्तुति करत वखाने। जहां तहां ब्रजमंगल गाने। बाजत ढोल मृदंग निसानै। बहुत भांति सब करे पकवानै। नेवजकरि धार सांझ बिहानै। छुवत नहीं देवकाज सकाने। देवभोगको रहत डेराने॥ सूरदास हमसुरपति जानै। और कौन ऐसो जेहि मानै॥८॥ नंदमहर घर होत वधाई। करत सबै बिधिदेव पुजाई॥ निवज करत यशोदा आतुर। अष्टौ सिद्धि घरहि अतिचातुर॥ मैदा उज्ज्वल कारकै छान्यो। बेसनदारि चनक करि वान्यो॥ घृत मिष्टान्न सबै परिपूरन। मिश्रित करत पागको चूरन॥ कटुवा करत मिठाई घृत पक। रोहिणि करत अन्नभोजन तक॥ संग और ब्रजनारी लागी। भोजन करतेहैं बड़ी सभागी। महरि करत ऊपर तरकारी। जोरत सबविधि न्यारी न्यारी॥ सूरदास जो मांगत जबहीं। भीतरते लेदेतहैं तबहीं॥९॥ महरि सबै नेवज लै सैतति। श्याम छुवै कहुँ ताको डरपति॥ कान्हहि कहति यहां जनि आवै। लरकनको यह देव डरावै॥ श्यामरहे आंगनहिं डराई। मन मन हँसत मात सुखदाई॥ मैयारी मोहिं देव देखैहै। इतनो भोजन सब वह खैहैं। यह सुनि खीझतिहै नँदरानी बार बार सुतसों बिरुझानी॥ ऐसी बात नकहौ कन्हाई। तू कत करत श्याम लँगराई॥ कर जोरति अपराध छमावति। बालकको यह दोष मिटावति॥ सूरदास प्रभुको नहिं जानै। हँसत चले मनमें नरिसानै॥१०॥ युवती कहति कान्ह रिसपायो। जान देहु सुरकाज बतायो। बालक आइ छुवै कहुँ भोजन। उनकी पूजा जानै को जन॥ यह कहि कहि देवता मनावति। भोग सामग्री धरत उठावंति॥ उनकी कृपा गऊगण घेरे। उनकी कृपा धाम धन मेरे॥ उनकी कृपा पुत्र फल पायो। देखहु श्यामहि खीझि पठायो॥ सूरदास प्रभु अंतर्यामी। ब्रह्माकीट आदिके स्वामी॥११॥ नंद निकट तब गए कन्हाई। सुनत बात तहँ इंद्र पुजाई। महर नंद उपनंद तहाँ सब। बोलिलिए वृषभानु महर तबृ॥ दीपमालिका रचिरचि साजत। पुहुपमाल मंडली बिराजत॥ बरषसातके
कुँवरकन्हाई। खेलत मन आनंद बढ़ाई॥ घर घर देति युवति जमहाथा। पूजा देखि हँसत ब्रजनाथा॥ मो आगे सुरपतिकी पूजा। मोते और देव को दूजा॥ शतशत इंद्र रोमप्रति लोमनि। शतलोमनि मेरे इक रोमनि॥ सूरश्यामए मनसों वातैं। लीनो भोग बहुत दिन जातैं॥१२॥ सुरपति पूजा जानि कन्हाई। वार वार बूझत नदराई॥ कौन देवकी करत पुजाई। सो मोसों तुम कहौ बुझाई॥ महर कह्यो तब कान्ह सुनाई। सुरपति सब देवनके राई॥ तुमरे हित मैं करतपुजाई। जाते तुम रहो कुशल कन्हाई॥ सूर नंद कहि भेद बताई। भीर बहुत घर जाहु सिखाई॥१३॥ जाहु घरहि बलिहारी तेरी। सेज जाइ सोवो तुम मेरी॥ मैं आवतहौं तुम्हरे पाछे। भवन जाहु तुम मेरे वाछे॥ गोपन लीन्हें कान्ह बुलाई। मंत्र कहौं एक मनाहि समाई॥ आज एक सपने कोउ आयो। शंखचतुर्भुज चारि बतायो॥ मोसों यह कहि कहि समुझायो। यह पूजा तुम किनहि सिखायो॥ सूरश्याम कहि प्रगट सुनायो। गिरि गोवर्धन देव बतायो॥१॥ यह तब कहन लगे दिवराई। इंद्रहि पूजे कौन बड़ाई॥ कोटि इंद्र हम छिनमें मारैं। छनहीमें फिरि कोटि सँवारें॥ जाके पूजे फल तुम पावहु। तादेवहि
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सूरसागर।