गिरिधर वर मांगत रविसों घोषकुमारि॥१७॥ कान्हरो ॥ घरघरते ब्रज युक्ती आवति। दधि अक्षत रोचन धरि थारनि हरषि श्याम शिर तिलक बनावति॥ वारंवार निरखि छवि अंग अंग श्याम रूप उरमाहँ दुरावति। नंद सुवन गिरि धरयो वामकर यह कहिकै मनहरष वढावति॥ जहि पूजति सब जन्म गँवायो सो कैसेहुं पग छुवन नपावति। सूरश्याम गिरिधरन मांगि वरु करजोपति कहि विधिहि मनावति॥१८॥ सोरठ ॥ नीके धरणि धरयो गोपाल। प्रलयघन जल बरषि सुरंपति परयो चरण विहाल॥ करत स्तुति नारि नर ब्रज नंद अरु सब ग्वाल। जहां तहां सहाय हमको होतहैं नंदलाल॥ जाहि पूजत डरत मनमें ताहि देख्यो दीन। त्रिदशपति सब सुरको नायक सो भयो आधीन। देखि छबि अति नंदसुतकी नारि तन मन वारि। सूरप्रभु करते गुवर्धन धरयो धरणि उत्तारि॥१९॥ नट ॥ करते धरयो धरणी धरनि। देखि ब्रजजन थकित ह्वै रहे रूप रतिपति हर नि॥लेत वेर न धरत जान्यो कहत ब्रज नर घरनि। तन ललित भुज अतिहि कोमल कियो बल बहु करनि॥ मोर मुकुट विशाल लोचन श्रवण कुंडल वरनि। सूर सुरपति हारि मानी तब परयो दुहुँ चरनि॥२०॥ विलावल ॥ घरनि घरनि ब्रज होत बधाई। सातवरषके कुँवर कन्हैया गिरिवर। धरि जीत्यो सुरराई। गर्व सहित आयो ब्रज बोरन यह कहि मेरी भक्ति घटाई। सातदिवस जल वरषि सिराने तब आयो पाइँनतरधाई। कहाँ कहाँ शंकट नहिं मेटत नर नारी सब करत बड़ाई। सूरश्याम अबकै ब्रजराख्यो खाल करत सब नंद दोहाई ॥२१॥ नट ॥ क्यों राख्यो गोवर्धन श्याम अतिऊंचो विस्तार अतिहि बहु लीनो उचकि करज भुजवाम॥ यह आघात महाप्रलय जल डर आवत मुख लेतहि नाम। नीके राखि लियो ब्रज सिगरो ताको तुमहि पठायो धाम॥ ब्रज अवतार लियो जबते तुम यहै करत निशि वासर याम। सूरश्याम वन घन हम कारण बहुत करत श्रमनहिं विश्राम॥२२॥ राखि लियो ब्रज नंदकिसोर। आयो इंद्र गर्व करि चढिकै सात दिवस वरषत भयो भोर॥ वाम भुजा गोवर्धन राख्यो अति कोमल नखहीकी कोर। गोपी ग्वाल गाइ ब्रजगख्यो नेकु न आई बूंद झकोर॥ अमरापति चरणन लै परयो जब पीते युग गुनको जोर। सूरश्याम करुणा के ताको पठै दियो घर मानि निहोर॥२३॥ मलार ॥ मेरो मोहन जल प्रवाहक्यों टारयो। बूझत मुदित यशोदा जननी इंद्र कोप करिहारयो॥ मेघवर्त जल वरषि निशा दिन नेकु न नैन उघारयो। वार वार यह कहति कान्हसों कैसे गिरि नख धारयो। सुरपति आनि गिन्यो गहि पांइन ताको शरन उवायो। सूरश्याम जनके सुखदाता करते धरणि उतारयो॥२४॥ सोरठ ॥ मेरे सांवरे मैं बलिजाउँ भुजनकी। क्यों गिरि सबल धरयो कोमल कर वूझतिहौं गति तनकी। इंद्र कोप आयो ब्रज ऊपर बहुत पैज करि हारे। ठाढे गोप कहत भैयाहो तैं हम भले उबारे॥ थार तमोर दूध दधि रोचन हरषि यशोदा ल्याई। करै शिर तिलक चरण रजवंदित मनहु रंक निधिपाई॥ चरणनपरत कमल ब्रजसुंदरि हरषि हरषि सुसुकाई। फिरि फिरि दरशकरति एही मिस प्रेम न प्रीति अघाई। गोपी गाइ ग्वाल गोसुत सब वार वार अकुलाही। निरांखे निरखि सुंदर मुख सोभा प्रेम तृषा न बुझाही। सूरदास सुरपति शंकितह्वै
सुरनलिये सँगआयो। तुम जु अनंत अखिल अविनाशी काहू मरम नपायो॥२५॥
सोरठ ॥ गिरिवर कैसे लियो उठाई। कोमल कर चापति यशुदा यह कहि लेत बलाई॥ महाप्रलय जलतापर राख्यो एक गोवर्धन भारी। नेक नहीं हाल्यो नखपरते मेरो सुत अहंकारी॥ कंचनवार दूब दधि रोचन सजि तमोर लैआई। हरषतितिलक करति मुख निरखति भुजभरि कंठ लगाई॥
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सूरसागर।