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- - (२१८) सूरसागर। मात मैं ओछी वृद्धि करी लरिकाइ॥५॥ इंद्र शरणचले ॥ कान्हरो ॥ सुरगण सहित इंद्र ब्रज आवत। धवल वरन ऐरापति देख्यो उतार गगनते धराण धंसावत ॥ अमरा शिव रवि शशि चतुरानन हय । गय वसह हंस मृग जावत । धर्मराज वनराज अनलदिव शारद नारद शिवसुत भावत ॥ मेंढा मढी मगरगुडरारो मोर आषु मनवाह गनावत।बजके लोग देखि डरपे मन हरि आगे कहि कहि जुसुना। वत। सातदिवस जल वरपि वटान्यो आवत चल्यो बजहि अनावत । घेरा करत जहां तहां गढे व्रजवासिनको नहीं बचावत ॥ दूरहिते वाहनसों उतरयो देवन सहित चल्यो शिरनावत।। आइ परयो चरणनतर आतुर सूरदास प्रभु शीश उठावत ॥ ६ ॥ सुरपति चरण परयो गहि । धाइ । युग गुणधोइ शेषगुण जान्यो शरणहि राखिलेहु शरनाइ ॥ तुम विसरे तुमरी मायामें तुम, विनु नाहीं और सहाइ । शरन शरन पुनि पुनि कहि कहि मोहिं राखि राखि त्रिभुवनके राइ ॥ मोते. चूकपरी विनुजाने मैं कीने अपराध बनाइ । तुम माता तुमही जगदाता तुम भ्राता अपराध क्षमाइ ॥ जो बालक जननीसें विरुझै माता ताको लेइ मनाइ । ऐसेहि मोहिं करौ करुणामय सूर श्याम ज्यों सुतहित माइ॥७॥विलावल। व्याकुल देखि इन्द्रको श्रीपति उभय भुजा करि लियो उठाइ । अभय निभय करमाथे दीनो श्रीमुखवचन कह्यो मुसिक्याइकहाभयो जु चढे ब्रज ऊपर मैं तुरतहि करि लियो सहाइ। हमको जानि नहीं तुम कीनो विनजाने यह करी ढिठाइ ॥ अब अपने जिय सोच करौ जिनि यह मेरी दीनी ठकुराइ ॥ सूरश्याम गिरिधर सब लायक इंद्रहि कहो करो सुखजाइ ॥८॥रागनट ॥ सुरगण करत स्तुति मुखनि । दरशते तनुताप खोयो मेटि अपके दुखनि ॥ अंग पुलकित रोम गदगद कहत वाणी मुखनि । वामभुज करटेकि राख्यो करज़ लघुके नखानप्रेिमके वश तुमहि कीन्हो ग्वाल बालक सखनिायोगि जन वन तप न जाप न नही पावत मखनि ॥ धन्य नंद धनि मातु यशोमति चलत जाके रुखनि। सूरप्रभु महिमा अगोचर जाति कापै लखनि ॥ ९॥ भैरव ॥ जयमाधव गोविंद मुकुंदरि । कृपासिंधु कल्याण कंसअरि॥ प्रणतपाल केशव कमलापति । कृष्णकमल लोचन अनन्यगति ॥ श्रीरामचन्द्र राजीव नैननवर । शरण साधु श्रीपति सारंगधर ॥ वनमाली विठ्ठल वावन वल। वासुदेव वासी ब्रजभूतल ।। खरदूषण त्रिशिरा शिरखंडनाचरण चिह्न दंडक भुअमंडनविकी वदन वक वदन विदारनावरुन विपाद नंद निस्तारन।।ऋषिमख तृणा तारकातारनावनवसि तात वचन प्रतिपालन।कालीदमन केशिकरपातन।। अघ अरिष्ट धेनुक अनुपातन ॥ रघुपति प्रवल पिनाक विभंजनाजगहित जनक सुता मनुरंजन.॥ गोकुलपति गिरिधर गुणसागरागोपीरमन राशिरतिनागरीकरुणामय कपिकुल हितकारीवालिविरो ध कपट मृगहारी ॥ गुप्त गोपकन्या व्रतपूरन दुष्टन दुख भक्त न दुखचूरन ॥ रावण कुंभकर्ण : शिरछेदन । तरु वर सात एक शर वेधन ॥ शंखचूड चाणूर संहारन । शक कहै मोको रक्षाकरन ॥ उत्तरकृपागीध हितकारी। दरशनदे शबरी उद्धारीजिपद सदा शंभुहितकारीराजेपद परसि सुरसरी गारी॥जेपद रमा हृदयनहिं टारी । जेपद तिहूँभुवन प्रतिपारी । जेपद अहिफन फन प्रतिधारी। जेपद वृंदावनहि विहारी॥ जेपद शकटासुर संहारी । जेपद पंडव गृह पगुधारी ॥ जेपदरज गौतम तियतारी । जेपद भक्तनके सुखकारी॥ सूरदास सुर याचत तेपद । करहु कृपा अपने जनपर सद ॥ आसावरी ॥ स्तुति करि सुर घरनि चले। यह कहत सब जात परस्पर सुकृत हमारे प्रगट फले ॥ शिवविरंचि सुरपति कहँ भाषत पूरण ब्रह्महि प्रगट मिले। धन्य धन्य यह दिवस आजको जातहै मारग करत मिले ॥ पहुँचेजाइ आपुने लोकनि अमर नारि सब हरष भरे । सूरश्यामकी - -