कहौं कहा उज्ज्वलताई। उदधि शिखरह्वै रह्यो भातमें देह छपाई॥ वदरौला वृषभानुके एक बिलोवन हारि। ताकी बलि वहि देवता लीन्ही भुजा पसारि॥ १५॥ लै सब भोजन अरपि अरापि गोपन करजोरे। अगणित कीने स्वाद दास वरणे कछु थोरे॥ यहिविधि पूजा पूजिकै गोविंद पूंछो जाई। कान्ह कह्यो हँसि सूरसों लीला भली बनाई॥१६॥ गौरी ॥ श्याम कहत पूजा गिरि मानी। जो तुम भक्ति भावसों अर्प्यों देवराज सब जानी॥ तुम देखत भोजन सब कीनो अब तुम मोहिं पत्याने। बडो देव गिरिराज गोवर्धन इनै रहौ तुम माने॥ सेवा भली करी तुम मेरी देव कही यह वानी। सूर नंदमुख चूमत हरिको यह पूजा तुम ठानी॥६०॥६१॥ और कछू मांगो नंद हमसों जोमांगौ सो देउँ तुरतही यहै कहत गोपनसों॥ बल मोहन दोऊ सुत तेरे कुशल सदा येरहि हैं। इनको कह्यो करत तुम रहियो जब जोई ये कहिहैं।।सेवा बहुत करी तुम मेरी अब तुम सब घर जाहू। भोग प्रसाद लेहु तुम मेरो गोप सबै मिलि खाहू॥सपनो मैंहीं कह्यो श्याम सों करहु हमारी पूजा। सुरपति कौन वापुरो मोते और देव नहिं दूजा॥ इंद्र आइ वरपै जो ब्रज पर तुम जिनि जाहु डराई। सुनहु
सूंर सुत कान्ह तुम्हारो कहि हैं मोहि सुनाई॥६२॥ सारंग ॥भली करी पूजा तुम मेरी। बहुत भाव करि भोजन अर्प्यो इह सब मानिलई मैं तेरी॥ सहसभुजा धरि भोजन कीनों तुम देखत विदमान। मोहिं जानतहै कुँवर कन्हैया यही नहीं कोउआन॥ पूजा सबकी मानि मैं लीनी जाहु घरनि ब्रजलोग।
सूरश्याम अपने कर लीने बांटत झूठनि भोग॥६३॥ विलावल ॥ विनती करत नंद करजोरे पूजा कह हम जानैं नाथ। हम हैं जीव सदा मायाके दरश दियो हम किए सनाथा॥ महापतित मैं तुम पावन
प्रभु शरण तुम्हारी आयो तात। तुमसे देव और नहिं दूजो कोटि ब्रह्मांडरोम प्रति गात॥ तुम दाता अरु तुमहि भोक्ता हरता करता तुमहींसार। सूर कहा हम भोग लगायो तुमही भुलै दियो संसार॥॥६४॥ यह पूजा मोहिं कान्ह बताई। भूल्यो फिरत द्वार देवनिके त्रिभुवनपति तुमको बिसराई। आपुहि कृपाकरी स्वप्नंतर श्यामहि दरश दियो तुम आई। ऐसे प्रभु कृपालु करुणामय बालक की अति करी बड़ाई॥ गिरि पाँयनले हरिको पारत हलधरको पांयन लै नाई। सूरश्याम बलराम तुम्हारे इनको कृपा करौ गिरिराई॥६५॥ ग्वाल कहत धन्य धन्य कन्हैया।बड़ो देवता प्रगट बतायो यह कहि कहि सब लेत बलैया॥ धन्य धन्य गिरिराजनकी मणि तुम सम आन न दूजा। तुम लायक कछु नाहिं हमारे को जानै तुम पूजा॥ गोप सबै मिलि कहत श्याम सों जो ककु कह्यो सो कोनो सूरश्याम कहि कहि यह वाणी देव मानि सुखलीनो॥६६॥ गौहमलार ॥ गोपनंद उपनंद वृषभा नु आए। विनय सब करत गिरिराजसों जोरि कर गए तनु पाप तुव दरशपाए॥ देवता बड़ो तुम प्रगट दरशन दियो प्रकट भोजन कियो सबनि देख्यो। प्रकट वाणी कही गिरिराज तुम सही और नाहिं तिहूँभुवन कहूँ पेख्यो॥ हँसत हरिमनहिमन तकत गिरिराज तन देव परसन भए करो काजा। सूरप्रभु प्रगट लीला कही संबनि सों चले घर घरनि अपने समाजा॥६७॥ देखि थकित गण गंधर्व सुर मुनि। धन्य नंदको सुकृत पुरातन धन्य कही कहि जैजैजै धुनि॥ धन्य धन्य गोवर्धन पर्वत करत प्रशंसा सुर मुनि पुनि पुनि। आपुहि खात कहतहै गिरिकोयह महिमा देखी न कहूं सुनि॥ यहै कहत अपने लोकनि गए धनि ब्रजवासी वशकीनों उनि। सूरश्याम धनि धनि ब्रजबिहरत धन्य धन्य सव कहतहैं गुनि गुनि॥६८॥ नट नारायणी ॥ चले ब्रज घरनिको नर नारि। इंद्रकी पूजा मिटाई तिलक गिरिको सारि॥ पुलक अंग नसमात उरमें महर महरि समाज। अब बड़े हम देव पाए गिरि गोवर्धन राज॥ इनहिते ब्रज चैन रहिहै मांगि भोजन खात। यहै घेरा चलत ब्रजजन सबनि मुख यह बात॥ सबै सदनन आइ पहुँचे करत केलि विलास।
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०६
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२१३)
दशमस्कन्ध १०