तहां कोऊ ब्रजवासिनकी भीर॥ एक चले आवत ब्रजतनको यक ब्रजते बनकाज। सूरदास तहां श्याम सबनिको देखियतहै शिरताज॥४७॥ नटनारायण ॥ चलीं घर घरनिते ब्रजनारि। मनौं इंद्रबधून पंगति सोभा लागति भारि॥ पहिरि सारि सुरंग पंचरंग षटदश कारे श्रृंगारा। वहै इच्छा सबनिके मन श्यामरूप निहारि॥ ललिता चंद्रावली सहित राधा संग कीरति महतार। चले पूजा करन गिरिकी सूर सँग नर नारि॥४८॥ बहुत जुरे ब्रजवासी लोग। सुरपति पूजा मेटि गोवर्धन कीनो यह संयोग। योजन वीस एक अरु अगरो डेरा इहि अनुमान ब्रजवासी नर नारि अंत नहिं मानो सिंधु समान॥ इक आवत ब्रजते इतहीको इक इतने ब्रजजात। नंदलिए तब ग्वाल सूर प्रभु आइ गए तहांप्रात॥४९॥ आसावरी ॥ नंद करत गिरिकी पूजा विधि। भोजन सब लै धरे छहौरस कान्ह संग अष्टौसिधि॥ लैले आवत ग्वाल घरनिते भोजन बहुत प्रकार। व्यंजन देखि बहुत सुखपावत तुरत करौ जिवनार॥ जो हरि कहत करत सोइ सोइ विधि पूजाकी बहु भांति। माखन दधिपे तक धरत लै जोरि जोरि सब पांति॥ को वरनै नाना विधि व्यंजन जेवन ए नँदनारी॥ सूरश्यामकी लीला अद्भुत कह वरणै मुखचारी॥५०॥ नटनारायण ॥ विप्र बुलाइ लिये नंदराइ। प्रथमारंभ यज्ञको कीनो उठे वेद ध्वनि गाइ॥ गोवर्धन शिर तिलक वंदियो मेटि इंद्र ठकुराइ। अन्नकूट ऐसो रचि राख्यो गिरिकी उपमापाइ॥ भाँति भाँति व्यंजन परसाए कापै वरण्योजाइ। सूरश्यामको कहत ग्वाल गिरि जबहीं कहौ बुझाइ॥५१॥ विलावल ॥ इंद्र सोचु करि मनहिं आपने चकृत पुनि पुनि बुद्धि विचारत। कहा करत देखौं इनको मैं कौन बिलंबु लागत पुनि मारतं॥ अबए करैं आपने मन सुख मोको बनै सम्हारै। तबलौं रहौं पूजि निवरैं ये वचिहैं बैर हमारे॥ इतनो सुख इनके कररैहै दुख है बहुत अगाध। सूरदास सुरपतिकी वाणी मनही मनकी साध॥५२॥॥ गौरी ॥ चढि विमान सुरगणनभ देखत। लीला करत श्याम नवतन यह फिरि फिरि गिरि गोवर्धन पेपत॥ थकित भए सब जहां तहां मुनिजन ठौर ठौर नर नारि। चितै रहे तब श्याम बदन तन गति मति सुरति बिसारि॥ पूजामेटि इंद्रकी पूजत गिरि गोवर्धनराज। सूरदास सुरपति गर्वितभयो मैं देवन शिरताज॥५३॥ केदारो॥ कहत कान्ह नंद बाबा आवहु। भोजन परसि धरे सब आगे प्रेम सहित गिरिराज मनावहु॥ और नंद उपनंद बुलाए कह्यो सबनिसों भोग लगावहु। सपने में देखौ मेरी मूरति यह रूप धरि ध्यान मनावहु॥ इक मन इक चित करि अर्पनकरौ प्रगट देव तुम दरशन पावहु। सूरश्याम कहि प्रगट सबनिसों अपने कर लैलै जु जिमावहु॥५४॥ विनती करत सकल अहीर। सकल भीर भरि ग्वाल लैलै शिखर डारत क्षीर॥ चल्यौ वहि चहुँ पासते पय सुरसरी जलटारि। वसन भूषन लै चढ़ाए भीर अति नर नारि। मूंदि लोचन भोग अर्प्यो प्रेमसों रुचि भारि। सबनि देखी प्रगट मूरति सहसभुजा पसारि॥ रुचि सहित गिरि सबनि आगे करनि लैलैखाइ॥ नंदसुत महिमा अगोचर सूर क्यों कहै गाइ ॥५५॥ नट ॥ गिरिवर श्यामकी अनुहारि। करत भोजन अति अधिकई भुजासहस पसारि॥ नंदको कर गहे ठाढ़े यहै गिरिको रूप। सखी ललिता राधिकासों कहति देखि स्वरूप॥ यहै कुंडल यहै माला यहै पीत पिछौरि। शिखर सोभा श्यामकी छवि श्याम छवि गिरि जोरि॥ नारि वदरौला रही वृषभानु घर रखवारि। तहांते उहि भोग अर्पेउ लियो भुजा पसारि॥ राधिका छवि देखि भूली श्याम निरखी ताहि। सूर प्रभु वशभई प्यारी कोर लोचन चाहि॥५६॥ धनाश्री ॥ देखहुरी हरि भोजन खात। सहसभुजाधरि उत जेवतहै इतहि कहत गोपिनसों बात॥ ललिता कहत देखिहो राधा जो तेरे मन बात समाइ। धन्य सबै गोकुलके वासी
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दशमस्कन्ध-१०