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(२०६)
सूरसागर।


वह राखैं छाँह छुआइरी॥ को जाने कित होत हैरी घर गुरुजनकी सोररी। मेरो जिव गांठी वंध्यो पीतांवरकी छोररी॥ अबलौं सकुच अटकरही अब प्रगट करौं अनुरागरी। हिलिमिलिकै संग खेलिहौं मानि आपनो भागरी। घर घर ब्रजवासी सबै कोउ किन कहै पुकारिरी॥ गुप्तप्रीति परगट करौं कुलकी कानि निवारिरी॥ जबलगि मन मिलयो नहीं तब नची चौपके नाचरी। सुरश्याम संगही रहौ सब करौ मनोरथ सांचरी॥८॥ रागकाहन्रो॥ मोहन बिन मन नारहै कहा कहाँ माईरी। कोटि भांति करि करि रही समुझाईरी॥ लोकलाज कौन काज मनमें नहिं आईरी॥ हृदयते टरति नाहिन ऐसी मोहनी लाईरी। सुंदर वर त्रिभंगी नवरंगी सुखदाइरी॥ सूरदास प्रभु बिन मोसों नेकरह्यौ नाजाइरी॥९॥ रागसूही ॥ नँदको नंदन सांवरो मेरो चितचोरे जाइरी। रूप अनूप दिखाइकै वह औचक गयो आइरी॥ मोरमुकुट श्रवण कुंडल ओढनी फहराइरी। अधरनि पर मुरली धरे मधुर तान बजाइरी॥ चंदनकी खौर किए नटवर कछि काछनी बनाइरी। सूरदास प्रभु बैठे यमुनातट पूरण ब्रह्म कन्हाइरी॥१०॥ गौरी ॥ परयो तबते ढँग सूरि ठगौरी। देख्यो मैं यमुना तट बैठो ठोटा यशुमति कोरी॥ अति सांवरो भरयोसो साँचै कीन्हे चंदन खोरी। मन्मथ कोटि कोटि गहिवारौं ओढे पीत पिछौरी॥ दुलरी कंठ नयनरतनारे मोम न चितै हरचोरी। विकट भ्रुकुटिकी ओर कोरते मन्मथ बाण धरयोरी॥दमकत दशन कन ककुंडल मुख मुरली गावत गौरी। श्रवणन सुनत देह गति भूली भई विकल मति वौरी॥ नहिं कल परत विनादरशनते नयननि लगी ठगौरी। सूरश्याम चित टरत न नेकहु निशि दिन रहत लगौरी॥११॥ कल्याण ॥ युवति इक यमुनाजलको आइ। निरखत अंग अंग प्रति सोभा रीझे कुँवर कन्हाइ॥ गोरे वरन चूनरी सारी अलकैं मुख वगराइ। करनि चरिचरी चुरी विराजति करकंकन झलकाइ॥ सहज श्रृंगार उठत यौवनतन विधिसों हाथ बनाइ। सूरश्याम आये ठिग आपुन घटभरि चली झलकाइ॥१२॥ गौरी ॥ ग्वारि घट शिर धरि चली झमकाइ। श्याम अचानक लठ गही कहि अति कहा चली अतुराइ॥ मोहनकर त्रिय मुखकी अलकैं यह उपमा अधिकाइ। मनहु सुधा शशि राहु चोरावत धरयौ ताहि हरिआइ॥ कुचपरसो अंकम भरिलीनी दुहुँ मन हरष बढाइ। सूरश्याम मानो अमृत घटनिको देखतहै करलाइ॥१३॥ छांडि देहु मेरी लट मोहन। कुच परसत पुनि पुनि सकुचत नहिं कत आई तजि गोहन॥ युवती आनि देखिहैं कोऊ कहत बंक। भरि भौहन। बारबार कह वीर दोहाई तुम मानत नहिं सोहन॥ यतनेहीको सौंह दिवावत मैं आयो मुखजोहन। सूरश्याम नागार वश कीन्ही विवस चली धरिकोहन॥१४॥ धनाश्री॥ चली भवन मन हरि हरिलीन्हों। पगद्वै जाति ठठकि फिरि हेरति जिय यहा कहति कहा हरि कीन्हो॥ मारग गई भूलि जेहि आई आवतकै नहिं पावत चीन्हौं। रिसकार खीझि खीझि लट झटकति श्याम भुजनि छटकाये दीन्हों॥ प्रेमसिंधु में मगनभई त्रिय हरिके रंगभई अति लीन्हो। सूरदास प्रभु सोंचित अटक्यो आवत नहिं इतउतहि पतीन्हो॥१५॥ गौरी ॥ घर गुरुजनकी सुधि जब आई। तब मारग सूझ्यो नैननि कछु जिय अपने तिय गई लजाई॥ पहुँची आय सदन ज्योंत्यों करि नेक नहीं चित टरत कन्हाई। सखी संगकी बूझन लागीं यमुनातट अतिझेर लगाई॥ और दशाभई कछु तेरी कहति नहीं हमसों समुझाई। कहाकहों कहतन बनिआवै सुरश्याम मोहनी लगाई॥१६॥ सोरठ ॥ कैसे जलभरन मैं जाउँ। गैल मेरी परयो सखिरी कान्ह जाको नाउँ॥ घरते निकसत बनत नाहीं लोकलाज लजाउँ। तन इहां मन जाइ अटक्यो