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दशमस्कन्ध-१०


तुम श्याम अचगरी। काहूकी छीनतहौ गेंडुरी काहूकी फोरतहो गगरी॥ भरनदेहु यमुना जल हमको दूरिकरौ वांतैं एलंगरी। पैंडे चलन नपावै कोऊ रोकि रहत लरकनलै डगरी। घाट वाट सब देखत आवत युवती डरन मरतिहै सिगरी।सूरश्याम तोहि गारी दीनो जो कोउ आवै तुमरी वगरी॥रामकली ॥ नीके देहु न मेरी गिंडुरी। लैजैहौ धरि यशुमति आगे आवहुरी सब मिलि एक झुंडरी॥ काहू नहीं डरात कन्हाई वाट घाट तुम करत अचगरी। यमुना दह गेंडुरी फटकारी फोरी सब शिरकी अस गगरी॥ भली करी यह कुँवर कन्हाई आजु मेटिहौं तुम्हरी लँगरी। चली सूर यशुमतिके आगे उरहनलै तरुनी व्रजसगरी॥८१॥ आनि नदेहु ढौटोना ढीठ गेंडुरी पराई। तेरे कोऊ कहा करैगौ धौं लरिहै हमसों भौजाई॥ मेरे संगकी और गई ते जल भरि भरि घरते फिर आई। सूरश्याम गेंडुरी दीजै नतौ यशुमति सों कैहौं जाई॥८२॥ धनाश्री ॥ आपुन चढे कदम पर धाई। वदन सकोरि भौंह मोरतहै हांक देत करि नंद दोहाई॥ जाइ कहौ मैयाके आगे लेहु सवै मिलि मोहि वँधाई । मोको जुरि मारन जब आई तब दीनी गेंडुरी फटिकाई॥ ऐसेकरि मोको तुम पायो मनौ इनकी मैं करौं चेराई। सूरश्याम वे दिन विसराए जंब बांधे तुम उखललाई॥८३॥ आसावरी ॥ इहँई रहौ तौ वदौं कन्हाई। आपुगई यशुमतिहि सुनावन दैगई श्यामहि नंद दोहाई॥ महरि मथति दधि सदन आपने एहि अंतर युवती सब आई। चितै रही युवतिनको आवत कहां आवतिहैं, भीर लगाई॥ मैं जानति तुमको हार खिझई ताते सब उरहन लै धाई। सूरदास रस भरी ग्वालिनी ऐसो ढीठ कियो सुत माई॥८४॥विलावल ॥सुनह महरि तेरो लाड़िलो आति करत अचगरी। यमुन भरन जल हम गई तहां रोकत डगरी॥ शिरते नीर ढराइ देत फोरी सब गगरी। गेंडुरि दई फटकारिकै हरि करतहै लँगरी। नित प्रति ऐसेई ढंग करै हमसों कहै अगरी। अब वस वास नहीं बनै यहि तुव ब्रजनगरी। आपु गयोचढ़ि कदमही चितवत रहि सिगरी। सूरश्याम ऐसेही सदा हमसों करै झगरी॥८५॥ रामकली ॥ सुतको वरजि राखहु महरि। डगर चलन नदेत काहुहि फोरि डारत ढहरि॥ श्यामके गुण कछु नजानति जाति हमसों गहरि। इहै लालचगाइ दशलिए वसतहै व्रज थहरि॥ यमुनतट हरि देखे ठाढे डरनि आवै वहरि। सूरश्यामहि नेक वरजौ करतहै अतिचहरि॥८६॥ तुमसों कहति सकुचति महरिराश्यामके गुण नहीं जानति जाति हमसों गहरि॥ निकहूं नहिं सुनति श्रवणनि करति है हम चहारी। जल भरन को उ नहीं पावति रोकि राखत डहरि॥ अति अचगरी करत मोहन फटकि गेंडुरी दहीर। सूरप्रभुको कहा सिखयो रिसनि युवती झहरि॥८७॥ धनाश्री ॥ कहा करौं मोसों कहौ तुमही। जोपाऊँ तो तुमहि देखाऊं हाहा करिहौ अवहीं॥ तुमहूं गुण जानतिहौ हरिके ऊखल बांधे जबहीं। सँटिया लै मारन जब लागी तब वरज्यो मोहिं सबहीं॥ लरिकाईते करत अचगरी मैं जाने गुण तबहीं। सूरहाल कैसे करिहौं घरि आवै धौ हरि अबहीं॥८८॥ रागसारंग॥ मैं जानतिहौं ढीठ कन्हैया। आवनतौ घर देहु श्यामको जैसी करौं सजैया॥ मोसों करत ढिठाई मोहन मैं वाकीहौं मैया। और न काहूको वह माने कछु सकुचत बल भैया॥ अब जो जाउँ कहां तेहि पावों कासों देइ धरैया। सूरश्याम दिन दिन लंगर भयो दूरि करै लँगरैया॥८९॥ राग मूहा॥ युवति बोधि सब घरहि पठाई। यह अपराध मोहिं बकसौरी इहै कहतिहौ मेरी माई॥ इतते चली घरनि सब गोपी उतते आवत कुँवर कन्हाई॥ बीचहि भेट भई युवतिन हरि नैनन जोरत गए लजाई॥ जाहु कान्ह महतारी टेरति बहुत बड़ाई करि हम आई। सूरश्याम मुख निरखि निरखि हँसि मैं कैहौं जननी समुझाई॥९०॥ नट ॥ सकुचत