शीश उठायों॥ घरको चली जाइ तापाछे शिरते घट ढरकायो॥ चतुरग्वालि करगह्यो श्याम को कनक लकुटिआ पाई। औरनिसों करि रहे अचगरी मोसों लगत कन्हाई॥ गागरिलै हँसिदेत ग्वालिकर रीतो घटनहिं लैहौं। सूरश्याम ह्यां आनि देहु भरि तबहिं लकुट कर देहौं॥६९॥ राग कल्याण ॥ लकुट करकी हौं तब देहों घट मेरो जब भारदेहो। कहा भयो जो नंद बडे वृषभानु आन हमहूं तुम सीहैं समसरि मिलि करिकहौं॥ एक गाँव एक ठाँवको वाप्त येक तुम कैहो क्यों मैं सैहौं। सूरश्याम मैं तुम न डरैहौं जवाबको जवाब देहौं॥७०॥ घट भरिदेहु लकुट तव दैहौं। हमहूँ बडे महरकी बेटी तुमको नहीं डरैहौं। मेरी कनकलकुटिआ दैरी मैं भरिदेहौं नीर। विसरि गई सुधि तादिनकी तोहि हरे बसनके चीर॥ यह वाणी सुनि ग्वारि विवसभई तनुको सुधि विसराइ। सूर लकुट कर गिरत नजानी श्याम ठगौरी लाइ॥७१॥हमीर ॥ घटभरि दियो श्याम उठाइ। नेक तनुकी सुधि न ताको चली ब्रज समुहाइ॥ श्याम सुंदर नयन भीतर रहे आनि समाइ। जहां जहां भीर दृष्टि देखौं तहां तहां कन्हाइ॥ उतहिते एक सखी आई कहति कहा
भुलाइ। सूर अबहीं हँसत आई चली कहा गँवाइ॥७२॥ टोडी ॥ अबहिं गई जल भरन अकेली अरीहो श्याम मोहनी घालीरी। नँदनंदन मेरी दृष्टि परे आली फिरि चितवन उर शालीरी॥ कहारी कहौं कछु कहत न वनि आवै लगी मरमकी भालीरी। सूरदास प्रभु मन हरि लीन्हो विवस
भईहौं कासों कहों आलीरी॥७३॥ धनाश्री ॥ सुनत बात यह सखी अतुरानी। ताहि वाह गहि घर पहुँचाई आपु चली यमुनाके पानी॥ देखे आइ तहां हरि नाहीं चितवति जहां तहां विततानी। जलभरि ठठकत चली घरहि तन वार वार हरिको पछितानी॥ ग्वालिनि विकल देखि प्रभु प्रगटे
हर्ष भयो तन तपति बुझानी। सूरश्याम अंकम भरि लीन्ही गोपी अंतरगतिकी जानी॥७४॥ आसावरी ॥ मिलि हरि सुख दियो तेहि वाल। तपति मिटिगइ प्रेम छाकी भई रस बेहाल॥ मगनही डग धराति नागरि भवनगई भुलाई। जलभरन ब्रजनारि आवति देखि ताहि वोलाइ॥ जाति कितहै डगर छाँडे कह्यो इतको आइ। सूर प्रभुके रंग राची चितै रही चितलाइ॥७५॥धनाश्री ॥ काहू तोहिं ठगोरी लाई। बूझति सखी सुनति नहिं नेकहु तुही किधौं ठग मूरी खाई॥ चौंकिपरी सपने जनु जागी तब वाणी कहि सखिन सुनाई। श्याम वरन एक मिल्यो ढोटौना तेहि मोको मोहनी लगाई॥ मैं जलभरे इतहिको आवति आनि अचानक अंकम लाई। सूर ग्वारि सखियनके आगे बात कहै सब लाज गँवाई॥७६॥ टोडी ॥ आवतही यमुना भरे पानी। श्याम वरन काहूको ढोटा निरखि वदन घरगई भुलानी॥ उन मोतन मैं उन तन चितयो तब हीते उन हाथ विकानी। उर धकधकी टकटकी लागी तनु व्याकुल मुख फुरत नवानी॥ कह्यो मोहन मोहनी तूकोहै या ब्रजमें नहिमैं पहिचानी। सूरदास प्रभु मोहन देखत जनु वारिध जल बूंद हेरानी॥७७॥ नेक न मनते टरत कन्हाई। यक ऐसेहिं छकि रही श्यामरस तापर इह इहि बात सुनाई॥ वाको सावधान करि पठयो चली आपु जलको अतुराई। मोर मुकुट पीतांवर काछे देख्यो कुँवर नंदको जाई॥ कुंडल झलकत ललित कपोलनि सुंदर नैन विसाल सुहाई। कह्यो सूर प्रभु एढंग सीखे ठगत फिरत हो नारि पराई॥७८॥ कहा ठग्यो तुम्हरो ठगि लीन्हो क्योंनहिं ठग्यो और कहा ठगिहौ औरहिके ठग तुमको चीन्हों॥ कहो नाउ धरि कहा ठगायो। सुनि राखै यह बात। ठगके लक्षण मोहि बतावहु कैसे ठगके घाताठगके लक्षण हमसों सुनिए मृदु मुस
कनि मनचोरत॥ नैन सैनदे चलत सूर प्रभु अंग त्रिभंग करि मोरता॥७९॥ राग सुही ॥अतिहि करत
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सूरसागर।