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सूरसागर।


यह बात अचंभव भाषत नांगी आवहु नारी। सूरश्याम कछु छोह करौजू शीतगई तनमारी॥॥५३॥ आसावरी ॥ हाहाकरति घोषकुमारि। शीतते तन कँपत थर थर वसन देहु मुरारि॥ मनहि मन अतिही भयो सुख देखिकै गिरिधारि। पुरुष स्त्री अंग देखै कहत दोषहै भारि। नेकनहिं तुम छोह आवत गई हिम सब मारि। सूर प्रभु अतिही निठुरहो नंदसुत वनवारि॥५४॥ बिलावल ॥ लाज ओट यह दूरि करौ। जोई मैं कहौं करौ तुम सोई सकुच वापुरेहि कहाकरौ॥ जलते तीर आइ कर जोरहु मैं देखौं तुम विनयकरौ। पूरण व्रत अब भयो तुम्हारो गुरुजन शंका दूरिकरौ॥ अब अंतर मोसों जिन राखौ बार बार हठ वृथा करौ। सूरश्याम कह चीर देतहौं मो आगे श्रृंगारकरौ॥॥५५॥ जलते निकास तीर सब आवहु। जैसे सबितासो करजोरे तैसेहि जोरि देखावहु॥ नव वाला हम तरुन कान्ह तुम कैसे अंगदिखावैं। जलहीमें सब बाँह टेकिकै देखहु श्याम रिझावैं॥ ऐसे नहि रीझौं मैं तुमको तटही बांह उठावहु। सूरदास प्रभु कहत हार चोली वस्त्र तब पावहु॥५६॥ विलावल ॥ हमारो देहु मनोहर चीर। कांपत शीत तनहि अति व्यापत हिम सम यमुनानीर। मान हिंगी उपकार रावरो करो कृपा बलवीर। अतिही दुखित प्राण वपु परसत प्रबल प्रचंड समीर॥ हम दासी तुम नाथ हमारे विनवति जलमें ठाढी॥ मानहुं विकास कुमोदिनि शशिसों अधिक प्रीति उर बाढी। जो तुम हमै नाथ कै जान्यो यह मांगे हम देहु। जलते निकसि आइ वाहेरह्वै वसन आपने लेहु॥ कर धरि शीशगई हरि सन्मुख मनमें करि आनंद। ह्वै कृपालु सूरज प्रभु अंबर दीने परमानंद॥५७॥जैतश्री॥ तरुनी निकसि निकसि तट आई। पुनि पुनि कहत लेहु पट भूषण युवती श्याम बुलाई॥ जलते निकसि भई सब ठगढ़ी कर अंग ऊपरदीन्हे। बसन देहु आभूषन राखहु हाहा पुनि पुनि कीन्हें॥ ऐसे कहावतावतिहौ मोहिं बांह उठाय निहारो। करसों कहा अंग उर मूंदौ मेरे कहे उघारौ॥ सूरश्याम सोई हम करिहैं जोइ जोइ तुम सब कैहौ। लेहैं दाउँ कबहुँ हम तुमसों बहुरि कहां तुम जैहो॥॥२८॥ रामकली ॥ ललना तुम ऐसे लाड़ लड़ाए। लैकर चीर कदमपर बैठे किहि ऐसे ढँग लाए॥ हाहाकरति कंचुकी मांगति अंबर दिए मन भाए। कीनी प्रीति प्रगट मिलिवेकी अँखियन शर्म गमाए। दुख अरु हाँसी सुनहु सखीरी कान्ह अचानक आए। सूरदासके प्रभुको मिलनो अब कैसे दुरत दुराए॥५९॥नट॥ सोरहसहस घोषकुमारि। देखि सबको श्याम रीझे रही मुजा पसारि। बोलि लीन्हो कदमकेतर इहां आवहु नारि। प्रगट भए तहां सबनिको हरि काम द्वंद्व निवारि॥ बसन भूषन सवन पहिरे हरषभै सुकुमारि। सरप्रभु गुण भलेहैं सब ऐसे तुम बनवारि॥६०॥ दृढव्रत कियो मेरे हेत। धन्य धन्य कहि नंदनंदन जाहु सबै निकेत॥ करौं पूरण काम तुम्हरो शरदरास रमाइ। हरषभई यह सुनत गोपी रही शीशनवाइ॥ सबनिको अंग परस कीन्हो ब्रत कियो तनुगारि। सूर प्रभु सुख दियो मिलिकै ब्रजचलीं सुकुमारि॥६१॥ ॥ सूही ॥ ब्रत पूरण कियो नंदकुमार। युवतिनके मेटे जंजार॥ जप तप करि अब तन जिनिगारो। तुम घरनि मैं भर्ता तुम्हारो॥ अंतर शोच दूरि कार डारहु। मेरो कह्यो सत्य उर धारहु॥ शरद रास तुम आश पुरावहुँ। अंकम भरि सबको उरलावहुँ॥ यह सुनि सव मन हर्ष बढायो। मन मन कह्यो कृष्णपति पायो। जाहु सबै घर घोषकुमारी शरदरास देहौं सुखभारी॥सूरश्याम प्रगटे गिरिधारी आनंद सहित गई घर नारी॥६२॥ आसावरी ॥ शिवशंकर हमको फल दीन्हो। पुहुप पान नाना रस मेवा षटरस अर्पण लैलै कीन्हो॥ पाँइ परीं युवती सब यह कहि धन्य धन्य त्रिपुरारी।तुरतहि फल पूरन हम पायो नंदसुवन गिरिधारी॥ विनय करति सविता तुमसरिको पयअंजलि करजोरि।