प्रभु जलही भीतर देखि सबनको प्रेम। मीडत पीठि सबनिकी पाछे पूरण कीन्हे नेम॥ फिरि देखें तो कुँवर कन्हाई रुचिसों मीजत पीठि। सूर निरखि सकुचीं बन युवती परीश्याम तनुडीठि॥३४॥देवगंधार॥ अति तप देखि कृपा हरि कीन्हों। तनुकी जरानि दूरिभई सबकी मिलि तरुणिन सुखदीन्हों॥ नवलकिसोर ध्यान युवती मन ऊहै प्रगट दिखायो। सकुचि गई अंग बसन
समारति भयो सबनि मनभायो॥ मन मन कहति भयो तप पूरण आनँद उर नसमाई। सूरदास प्रभु लाज नआवति युवतिन माझ कन्हाई॥३५॥ सारंग॥ हँसत श्याम ब्रजघरको भागे। लोग नको यह कहति सुनावति मोहन करन लँगरई लागे॥ हम स्नान करत जलभीतर आपुन मीजत पीठि कन्हाई। कहाभयो जो नंदमहरसुत हमसों करत अधिक ढीठाई। लरिकाई तबहीलों नीकी चारि वरष की पांच। सूरजाइ कहिहैं यशुमति सों श्याम करत एनाच॥३६॥ प्रेम विवस सब ग्वालि भई। उरहन दैन चलीं यशुमतिको मनमोहनके रूप रई। पुलकि अंग अंगिया उर दरकी हार तोरि कर आपु लई। अंचलचीर घातनख उरकरि यहिमिस करि नंदसदन गई॥ यशोमति माई कहा सुत सिखयो हमको जैसे हाल कियो। चोली फारि हार गहि तोरयो देखो उर नखपात दियो॥ आंचरचीर अभूषण तोरे घेरि धरत उठि भागि गयो। सूर महरि मन कहति श्याम धौं ऐसे लायक कबहिं भयो॥३७॥ रागगौरी ॥ महरिश्यामको बरजति काहिन। ऐसे हाल किये हरि हमको भई कहूं जगआहिन॥ और बात एक सुनहु श्यामकी अतिहि भएहैं ढीठ। वसन विना
स्नान करति हम आपुन मीजत पीठ॥ आपु कहति मेरो सुत वारो हियो उघारि दिखायो। सुनतहु लाज कहतहु न आवै तुमको कहा लजायो॥ यह वाणी युवतिन मुख सुनिकै हँसी बोली नँदरानी। सुरश्याम तुम लायक नाहीं बात तुम्हारी जानी॥३८॥ गौरी॥ बात कहौ सो लहै वहैरी। बिना भीति तुम चित्र लिखतिहौ सो कैसे निवहैरी॥ तुम चाहतहौ गगन तुरैया मांगे कैसे पावहु। आवतही मैं तुम लखि लीन्ही कहि मोहिं कहा सुनावहु॥ चोरीरही छिनारो अब भई जान्यो ज्ञान तुम्हारो। औरै गोपसुतन नहिं देखौ सूरश्याम है वारो॥३९॥ मलार॥ ग्वालिनि घरहीकी वाढी। निशि दिन देखत अपनही आंगन ठाढी॥ कबहिं गुपाल कंचुकी फारी कब मैं ऐसे योग। अबहीं संग खेलन सीखे यह जानत सब लोग॥ नितही झगरतहैं मनमोहन मूरति देखि प्रेमरस चाखी। सूरदास प्रभु अटक नमानत ग्वाल सबैहैं साखी॥४०॥ गौरी॥ यहि अंतर हरि आइ गए। मोर मुकुट पीतांवर काछे अतिकोमल छवि अंग भए॥ जननि बुलाइ वांह गहि लीन्हो देखहुरी मदमाती। इनहीको अपराध लगावति कहा फिरत इतराती॥ सुनिहैं लोग मष्ट अबहूं करि तुमहि कहां की लाज। सूरश्याम मेरो माखन भोगी तुम आवति बेकाज॥४१॥ केदारो॥ अवही देखे नवल किसोर। घर आवतहीतनकभये हैं ऐसे तनके चोर॥ कछु दिन करि दधि माखन चोरी अब चोरत मनमोर। विवस भई तनु सुधि नसंभारति कहत बात भई मोर॥ यह वाणी कहतही लजानी समुझिभई जिय ओर। सूरश्याम मुख निरखि चली घर आनँद लोचन लोर॥४२॥ नटनारायण॥ ब्रज घर गई गोपकुमार। नेकहूं कहुँ मन न लागत कामधाम विसारि॥ मात पितको डर न मानत सुनत नाहिन गारि। हठकरति विरुझाति तब जिय जननि जानत वारि॥ प्रातही गठ
चली सब मिलि यमुनातट सुकुमारि। सूरप्रभु ब्रत देखि इनको नहिन परत सँभारि॥४३॥ गौरी॥ यमुनातट देखे नँदनंदन। मोर मुकुट मकराकृत कुंडल पीतवसन मनुचंदन॥ लोचन तृप्त भए दरशनते उरकी तपति बुझानी। प्रेममगन तब भई सुंदरी उर गद गद मुखवानी। कमल।
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सूरसागर।