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दशमस्कन्ध-१०

सूरप्रसन्न जानि एको छिन अधर सुशीश डोलावति॥६॥श्याम तुम्हारी मदन सुरलिका ने कैसी जग मोह्यो। जे सवही जीव जंतु जलवथलेक नादस्वाद सब पोझोजेि तीरथ तप करे तरनिसुत पन गहि पीठि नदीन्ही । ता तीरथ तपके फल लैकै श्याम सुहागनि कीन्हीं ॥ धरणी धरि गोवर्धन राख्यो कोमल प्राण अधार । अव हरि लटक रहत है टेढे तनक मुरलिके भार ॥ निदरि हमहि अधरन रस पीवत पढे दूतिका माई । सूरश्याम निकुंजते प्रगटी वैरि सौति भई आई॥६६॥ सखी री मुरली लीजै चोर। जिन गोपाल कीन्हें अपने वश प्रीति सबनिकी तोर ॥ छिन एक घोरि फेरि वसुतासुर धरत नकबहूं छोर । कवहूं कर कबहूं अधरनपर कवहूं कटिमें खोसत जोर।। नौजाना कछु मलि मोहनी राखीअंग अंभोर ॥ सूरदास प्रभुको मन सजनी वघ्यो रागके डोर ॥ ६६ ॥ केदारो ॥ मुरली अधर सजीवन वीर । नादप्रति वनिताविमोही डर विसारे चीर ।। खग नैन नूदि समाधिधरि ज्यों करत मुनि तपधीर । डोलति नहीं गुमलता विथकी मंद गंध समीर ।। मृग धेनु तृण तजिरहे ठाढे वच्छतजि मुख क्षीर। सूर मुरली नाद सुनि थकि रह त यमुनानीर ।। ६७ ॥ मलार । जव मोहन मुरली अधर धरी । गृहव्यवहार थके आरजपथ चलत नसंककरीपदरिपु पट अटक्यों आतुरज्यो उलटत पलट मरीशिवसुत वाहन आइ मिले हैं मनचित बुद्धि हारि॥ दुरि गए कीरकपोत मधुप पिक सारंग सुधि विसरी ॥ उडपति विद्रुम विव खिसान्यो | दामिनि अधिक डरीनिरखे श्याम पतंग सुतातट आनंद उमॅगि भरी।सूरदास प्रभु प्रीति परस्पर प्रेम प्रवाह परी॥२१॥अध्यायभयगोपीकावचन ॥ सारंगा हम नभई वृंदावन रेनु । जिन चरणन डोलत नंद नंदन नित प्रति चारत धेनु ॥ हमते धन्य परम ए दुम बन वालक वच्छ अरु धेनु । सूरसकल खेलत हॉसि बोलत ग्वालन संग मथि पीवत फेनु ॥ ६९ ॥ केदारा ॥ कहाभयो या देव जनमते ऊंचे पद कह्यो ऐन । सवजीवनको इहै एक फल छिनक मीन जल करते सैन । अधर मधुर पीवत मोहनको सबै कलंक नशाइ। अतिकठोर मणिका इनहीमें छेदि विसाल बनाइ ॥ अंतरसो सदा देखतह निज कुल वास वंश विहाइ । लिख्यो विन अंक नहिं कछु करनी निरखत ताही जो नयन लगाइ ॥ सूरदास प्रभु वालपरसन नित काम वेलि अधिकाइ ।।७० ॥रा सारंग ऐसो गुपाल | निरखि तन मन धन वारौं । नवल किसोरं मधुर मूरति सोभा उर धारौं ॥ अरुन तरुन कमलनैन मुरली कर राजै । ब्रजजन मन रुरन वेन मधुर मधुर वाजललित त्रिभंग सोतन मालासोहै । अति सुदेश कुसुमपाग उपमाको कोहोचरणरुनित नेपुर कटि किंकिणीकल कूज ॥ मकराकृत कुंडल छवि सूर कौन पूजै ॥ ७१॥ ॥ सुंदर मुखकी बलि वलि जाउँ ॥ लावनिनिधि गुणनिधि सोमानिधि निराखि निरखि जीवत सब गाउँ। अंग अंग प्रति अमित माधुरी प्रगाटत रस रुचि ठाउँठाउँ॥ तामें मृदु मुसुकानि मनोहर न्याय कहत कवि मोहन नाउँगनिन सैन इँदै जब हेरत तापर हों विनमोलं विकाउँ ॥ सूरदास प्रभु मदन मोहन छवि यह सोभा उपमा नहिं पाउँ ॥ ॥ ७२ ।। गृही ॥ मैं पलिजाउँ श्याम मुख छविपर । वलि वाल जाउँ कुटिल कच विथुरी बलि पछिजाउँ भृकुटि लिलाटतावलिवलि जाउँ चारु अवलोकान बलिहारी कुंडलकीपलिबालि जाउँ नासिका सुललित बलिहारी वा छविकी। वलि बलि जाउँ अरुन अधरनकी विद्रुम विव लजावन । मैं बलिजाउँ दशन चमकनकी वारौं तड़ित निसावन ॥ मैं बलिजाउँ ललित ठोढ़ीपर बलमोति नकी माल । सूरनिरखि तन मन बलिहारौं वलि वलि यशुमति लाल ॥७३॥ कान्हरो ॥ अलकन की छवि अलिकुल गावत। खंजन मीन मृगज लज्जितभये नैन नचावनि गतिहि नपावति ॥