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(१८८) सूरसागर। पर कोटिमदन छबिलाजत ॥ लोल कपोल झलक कुंडलकी यह उपमा कछु लागत । मानहै । मकर सुधारस क्रांडत आप आप अनुरागत ॥ वृंदावन विहरत नंदनँदन ग्वालसखा संग सोहत। सूरदास प्रभुकी छवि निरखत सुर नर मुनि सव मोहत ॥ ५५ ॥ रागधनाश्री ॥ तबलगि सबै सयान रही।जबलगि नवलकिसोरी मुरली वन समीर बही ।। तवहींलो अभिमान चातुरी पतिव्रत कुलहि चही। जबलगि श्रवण रंध्र मग मिलिक नाही इहै मही। तवलगि तरुनी तरल चंचलता बुधि वल सकुचि रही।सूरदासजवलगि वह ध्वनि मुनि नाहिन वनत कही।५६गौरीबिजललना देखति गिरि. धरको एक एक अंग अंग पर रीझी अरुझी मुरलीधरको । मनो चित्रकीसी लिखि काठी सुधिनाही मन घरको । लोकलाज कुलकानि भुलानी लुब्धी श्यामसुंदरको । कोउ रिसाइ कोउ कहै जाइ कछु डरी न काहू डरको। सूरदास प्रभुसों मनमान्यो जन्म जन्म परतरको ॥६७॥ सारंग ॥ वंसी बन कान्ह वजावत । आइ सुनो श्रवणनि मधुरे सुर राग रागिनी ल्यावत ॥ सुरश्रुति तान बंधान अमित अति ससअतीत अनागत आवत । जनु युग जुरि वरवेप सजलमाथि वदनपयोधि अमृत उपजावत ।। मनो मोहनी भेषधरे घर मुरली मोहन मुख मधु प्यावत।सुर नर मुनि वश किए राग रस अधर सुधारस मदन जगावतीमहामनोहर नाथ सूर थिरचर मोहे मिलि मरम नपा वता मानहु मूक मिठाईके गुन कहि नसकत मुख शीश डोलावत ॥५०॥ केदारो || वसीवनराज आज आई रण जीति । मेटतिहै अपने वल सबहिनिकी रीति ॥ विडरे गजयूथ शीलसैन लाज भाजी । बूंघट पट कवच कहो छूटे मान ताजी ॥ किनहूं पति गेह तजे किनहूं तनपान । किनहुन सुख शरण पायो सुनत सुयशकान ॥ कोऊ पद परसिगए अपने अपने देश । कोऊ वरि रंक भए हुते जे नरेश।। देत मदन मारुत मिलि दशौ दिशि दोहाई । सूरश्याम श्रीगोपाल वंसीवश माई ॥२९॥ सारंग ॥ जयते वसी श्रवणपरी । तवहीते मन और भयो सखि मोतन सुधि विसरी हौं अपने अभिमान रूप पौवनके गर्वभरी। नैक नकयो कियो मुनि सजनी वादिहि आपु टरी ॥ विनदेखे अव श्याम मनोहर युगभार जात घरी। सूरदास सुनु आरजपंथते कछू न चाठटरी॥६॥ सुरली ध्वनि श्रवन मुनि भवन रही नहिंपरे। ऐसीको चतुरनारि धीरजमन धरै| खग मग तरु सुर नर मुनिशिवसमाधि टरौअपनी गति तजी पौनसरिताउन टरैमोहनके मनकोको अपने वशकरें। सूरदास सप्तसुरन सिंधु सुधा भौ॥६॥कान्हरो ॥ माईरी मुरली आति गर्वकाहू वदति नाहिं आज। हरिको मुख कमल देख पायो सुखराजाबिठाति कर पीठ दीठ अधरछत्रछाही। चमर चिकुर राजत तहां सुरदासभामाहीं ॥ यमुनाके जलहि नाहिजलाधि जान देति । सुरपुरते सुर विमान भुवि घुलाइ लेति।स्थावर चर जंगम जहँ करति जीति अजीतिविदकी विधि मेटि चलति आपनेही रीति॥ वंसीवश सकल सूर सुर नर मुनि नाग। श्रीपतिहूं श्रीविसारी एही अनुराग ॥६॥ गौरी॥ मुरली मोहे. कुंवर कन्हाई । अचवति अधर सुधावश कीन्ही अब हम कहा करें कहिमाई ॥ सर्वसुहरयो कबहुँको ऐसे रहत नदेति अघाई । गाजति बाजात चढी दुहूँ कर अपने शब्द न सुनत पराई ॥ निहि तन अनल दह्यो कुल अपनो तासों कैसे होत भलाई । अव कहि सूर कौन विधि कीजै वन की व्याधि मांझ घर आई ॥ ६३ ॥ मलार ॥ मुरली तऊ गुपालहि भावति । सुनरी सखी. यदपि नंदनंदन नाना भांति नचावति॥राखत एक पाँइ गढेकार अति अधिकार जनावति । कोमल अंग आयु आज्ञागरु कठिठेठी है आवति।आत आधीन सुजान कनौठे गिरिधर नारि नवावति।आपुन पौढि अधर सेज्यापर करपल्लव पदल्लपव ठावति।भुकुटीकुटिल कोप नासा पुट हमपर कोप कुपावति ।