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Sadbudo- (१८६) सूरसागर। ॥ देखि आनंदकंद । चित चातक प्रेमघन लोचन चकोरको चंद ॥ चलित कुंडल गंड मंडल झलक ललित कपोल । सुधासर जनु मकर क्रीडत इंदु दह दह डोल ॥ सुभग कर आनन समापै मुरलिका एहिभाइ । मनो उनै अंभोज भाजन लेत सुधा भराइ॥श्यामदेह दुकूल दुात छवि लसत तुलसमिाल । तडित घन संयोग मानो सेनिकाशुकजाल ॥ अलक अविरल चारु हासविलास भृकुटी भंग। सूर हरिकी निरखि सोभा भई मनसा पंग ॥३७॥ मलार ॥ देखौमाई सुंदरताको सागर । बुधि विवेक बल पार न पावत मगन होत मन नागर॥ तनु अति श्याम अगाध अंबुनिधि कटिपट पीततरंग । चितवत चलत अधिक रुचि उपजत भँवर परत सब अंग ॥ नैनमीन मक राकृत कुंडल भुजबल सुभग भुजंग । मुकुतमाल मिलि मानो सुरसरि द्वैसरिता लिये संगामोर मुकुट मणिनग आभूषण कटिकिकिनि नखचंद । मनु अडोल वारिधमें विवित राका उडुगणवृंद।। वदन चंद्र मंडलकी सोभा अवलोकनि सुखदेत । जनु जलनिधि मथि प्रकट कियो शशिश्रीअरु सुधासमेत ॥ देखि स्वरूप सकल गोपीजन रही विचारि विचारि । तदपि सूर तरि सकी नसोभा रही प्रेम पचिहारि॥३०॥ भैरवी जैसी जैसी वाः करै कहतन आवैरी । श्यामसुंदर अति मगन मन भावैरी मदनमोहन मृदुवैन बजावैरी । तान तरंग रसरसिक रिझावैरी॥ जंगम थावर करै थावर चलावैरी लहार भुजंग तजि सनमुख आवरी ॥ व्योम जन अति गति फूल वरपावरा । काामान धीरज धेरै साको जो कहावैरी।। नंदलाल ललना लाल चलत लचावैरी । सूरदास प्रेम हरि हिये न समावैरी।। ॥३९॥ कल्याण ॥ बने विसाल हरि लोचन लोल । चितै चितै हरि चारु विलोकनि मानहुँ मांगत हैं मन ओल ॥ अधर अनूप नासिका सुंदर कुंडल ललित सुदेश कपोल । मुख मुसकात महाछवि । लागत श्रवण सुनत सुढि मीठे वोल| चितवत रहत चकोर चंद्र ज्यों नेक नपलक लगायत डोल। सूरदास प्रभुके वश ऐसे दासी सकल भई विनु मोल ॥४०॥ धनाश्री ॥जयुवती हरिचरण मनावै ।। जेपद कमल महामुनि दुर्लभ ते सपनेहु नपादै ॥ तनु त्रिभंग युग जानु एक पग ठाढे येक येक ! दरशायो । अंकुश कुलिश वज्र ध्वज परगट तरुणी मन भरमायो ॥ यह छवि देखि रही एकटकही यह मन करति विचार । सूरदास मनौ अरुण कमल पर सुखमय करत विहार ॥४१॥ विलावल ॥ देखि सखी हरि अंग अनूप । जानु युगल युग जंघ विराजत कोवरणयहरूपालकुट लपेटि लटकि भए ठाढे एकचरण धरधारे। मनहुँ नीलमणि खंभ कामरचिराक लपेटि सुधारेकबहुँ.लकुटते जानु हरिलै अपने सहज चलावत सूरदास।मानहु करभाकर वारंवार डोलावता॥४२॥नट नारायणाकटितट पीत वसन सुदेष । मनहुँ नवधन दामिनीतजि रही सहज सुवेष । कनक मणि मेखलाराजत सुभग। श्यामल अंग। मनो हंस रिसाल पंगति नारि बालक संग ॥सुभग करि काछनी राजत जलज केसरि । खंड । सूर प्रभु अंग निरखि माधुरि मदन तनु परयो दंड ॥ १३ ॥ नट ॥ तरुणी निरखि हरि प्रति अंग। कोउ निरखि नख इंदु भूली कोउ चरण युगरंग॥ कोऊ निरखि वपु रही थकि कोऊ निरखि यगजानु।। कोउ निरखि युगजंघ सोभा करति मन अनुमानु॥कोज निरखि कटि पीत कछनी मेखला रुचिकारि । कोऊ निरखि हृद नाभिकी छवि डारि तनमन वारि ॥ रुचिर रोमावली हरि की चारु उदर सुदेष ॥ मनो अलिसेनी विराजत बनै एकहि भेष । रही एकटक नारि ठाठी करत बुद्धिविचार । सूर आगम कियो नभते यमुन सूक्षमधार ॥ ४४ ॥ राजत रोम राजिव रेप ! नील वन मनों धूमधारा रही सूक्षमशेष । निरखि सुंदर हृदयपर भृगुपद परम सलेप । मनहुँ । सोभित अभृअंतर शंभु भूपणभेष ॥ मुक्तमाल नक्षत्र गणसम अर्धचंद्रविशेष॥ सजल उज्ज्वल । -...-