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'दशेमस्कन्ध-१० (१८५) वेणु नादकरत ॥ मुरली मुख अधर धरत जननी मनहरत ग्वाल गावत सुरसाई वृंदावन तुरतजाइ धेनु चरति तृण अघाइ श्याम हरपपाइ निरखि सूरज बलि जाई ॥ २९ ॥ मुरलीस्तुति ॥ सारंग ॥ जव हरि मुरली अधर धरत खगमोहे मृगयूथ भुलाने निरखि मदन छवि छरत । पशुमोहे सुरभीहु थकी तृणदंतहि टेकरहत ॥ शुक सनकादि सकल मनमोहे ध्यानिउ ध्यान वहत । सूरजदास भाग्यहैं तिनके जो या सुखहि लहत ॥३०॥ विहागरो॥ कही कहा अंगनकी सुधि विसरि गई । श्याम अधर मृदु सुनत मुरलिका चकृत नारिभई। जो जैसे सो तैसे रहिगई सुख दुख कह्यो नजाइ। लिखी चित्रसी सूर सो रहिगई एकटक पल विसराइ ॥ ३१॥ राग मलार ॥ सुनत वन मुरली ध्वनिकी बाजन । पपीहा गुंज कोकिल वन कुंजत अरु मोरनके गाजन।यही शब्द सुनिअत गोकुलमें मोहन रूप विराजन । सूरदास प्रभु मिली राधिका अंग अंग करि साजन ॥ ३२ ॥ मारू ॥ मेरे साँवरे जब मुरली अधर धरी। सुनि ध्वनि सिद्ध समाधि टरी ॥ सुनि थके देव विमान । सुरवधू चित्र समान ॥ गृह नक्षत्र तजत नरास । याहीवधे ध्वनिपास ॥ सुनि आनंद उमॅगिभरे । जल थलके अचल टरे ॥ चराचर गति विपरीति । मुनि वेनु कल्पित गीति ॥ झरना झरत पापान । गंधर्व मोहे कलगान मुनि खग मृग मौन धरे । फल तृण सुधि विसरे ॥ सुनि धेनु अति थकित रहे।तृणदंतहु नहीं गहे। पछरा न पावै क्षीर । पंछी न मनमेंधीर ।। द्रुम वेली चपल भए। सुनि पल्लव प्रगटि नए ॥जे विटप चंचल पात। ते निकटको अकुलात ॥ अंकुलित जे पुलकित गात । अनुराग नैन चुचात ॥ सुनि चंचल पवन थके । सरिताजल चलि नसके।सुनि ध्वनि चली ब्रजनारि । सुतदेह ग्रेह विसार सुनि थकित भयो समीर । उलटो वह्यो यमुनानीर । मनमोहन मदनगोपाल । तनश्याम नयन विसाल ।। नवनील तनु घनश्याम । नवपीत पट आभिराम ॥ नव मुकुट नव घनदाम । लावण्यता कोटिककाम । मनमोहन रूप धरयो । तव कामको गर्व हरव्यो।।मेरे मदन मोहन लालासंग नागरी ब्रजबालानवकुंज यमुनाकूल। देखत सूरदास जन फूल ॥३३॥पूरवी॥तरुतमाल तरे त्रिभंगी तरुण कान्ह कुँवर ठाढेहैं साँवरेवरन । मोर मुकुट पीतांवर वनमाल विराजित देखत ब्रजजन मनहरन।। सखाअंशपर भुज दीन्हें लीन्हें मुरली अधर मधुरतान विश्वंभरना।सूर श्याम कमलनयनकौनको नकीन्हे वशविलोकनि श्रीगोवर्धनधरन ॥३४॥ बिलावल ॥ श्यामहृदय वर मोतिनमाला । विथकित भंई.निरखि ब्रजवाला ॥ श्रवण थके सुनि वचन रसाला । नैनथकेदरशननंदलाला । कंचुकंठ भुज नैनविसालाकिरकेटर कंचन नग जाला।पिल्लच हस्त मुद्रिका भ्राजाकौस्तुभमणि हृदयस्थल छानें। रोमावली वरणि नहिं जाई । नाभिस्थलकी सुंदरताई ॥ कटि किंकिणी चंद्रमणि संयुत । पीतांवर कटितट छवि.अद्भुत ॥ युगल जघकी पटतर कोहै । तरुनी मन धीरजको जोहै । जान जानुकी छवि नसँभारे । नारि निकर मन बुद्धि विचारै ॥ रत्न जटित कंचनकल नेपुररामदमंद गति चलत मधुर सुर॥युगल कमल पद नखमणि आभा। संतनिमन संतत यह लाभा॥ जो जेहि अंग सो तहां भुलानी । सूरश्याम गति का नजानी ॥३६॥ अध्याय २०||गोरी ॥ नँदनंदन मुख देख्योमाई। अंग अंग छवि मनहु उये रवि शशि अरु समर लजाई । खंजन मीन कुरंग भंग वारिजपर अति रुचिपाई । श्रुतिमंडल कुंडल विवि मकरसु विलसत सदन सदाई । कंठ कपोत कीर विद्रुम- पर दारिम, कननि चुनाई । दुइ सारंग वाहन पर मुरली आई देत दोहाई।मोहे थिर चर विटप.विहंगम व्योम विमान थकाई । कुशमंजुलि.वरपत सुर ऊपरते सूरदास बलिजाई ॥३६॥ फेदारो ॥ देखिरी