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दशमस्कन्ध-१० (१८३) धाम गयो मात पित ब्रजजनहि सुखदकारी ॥९॥ रामकली ॥ हरिव्रज जनके दुख विसरावन । कहा कंस करि कमल मँगाये कहा दावानल दावनाजिल कर गिरे उरग कवनाथ्यो नहिं जानत बज लोग। कहां वसे यकनि दिवस भरि कवहिं भयो यह सोग।यह जानत हम ऐसेहि ब्रजमें वैसहि करत विहार। सूरश्याम जननीसों मांगत माखन वारंवार १०अष्टादशमोअध्यायः॥मलंबवधा|भैरवी।एक देव प्रलंभ दानवको लीन्हो कंस । वुलाई कह्योजाइमारोनंदढोटा देहों बहुत बडाई ॥ तेहि कहिकैआयो ब्रजभीतर करत बडो उतपातानर नारी देखत सब डरपे कीन्हो हृदय संतापहिरि ताको दै सैन बुलायो मोपै काहेन आवत। तव वह दोऊ हाथ उन ये आयो हरिदेखि धावत ॥ हरि दोउ हाथ पकारकै ताके दियो दुरि फटकारी गिरोधरणि पर अति विहवल होइ रह्यो नदेह संभारी।वहुरो उठ्यो संभार असुर वह धायो निज मुख वाई । देखि भयान करूप असुरकोसुर नर गए डराई।चहुंघा फेरि असुर धारपट क्यो शब्द उध्यो आघात । चौकि परयो कंसासुर सुनिक भीतर चल्यो हहरात ॥ पुहुप वृष्टि करि देवन मिलि आनंद मोद बढाइ। व्रजजन नंद यशोदाहरपित सूर सुमंगल गाइ ।।११॥ सारंग ॥ यशुमति झति फि रतिगोपाल हि। सांझ कि विरियां भई सखीरी मैं डरपति जंजालहि ॥जवते तृणावर्त बज आयो तवते मोहिं जियसंक । नैननि ओट होत पल एकौ मैं मनमरति अदक॥ इहि अंतर बालक सवआये नंदहि करत गुहारी । सूरश्यामको आइ कौनधौं लेगयो कांधे डारी ॥ १२ ॥ कान्हरो ॥ आजु कन्हैया बहुत वच्योरी । खेलत रह्यो घोपके बाहर कोउ आयो शिशुरूपरच्योरी ॥ मिलि गयो मनहि सखा की नाई लेचढाइ हरि कंधस च्यौरी । धर्म सहाय होतहै जहँतहँ श्रमकार पूरव पुण्य बच्योरी ।। गगन उडाइ गयो ले श्यामहि आइ धराण पर आपु दच्योरी । सूरश्याम अवकै बचिआये व्रज घर घर सब सुखहि मच्योरी ।। १३ ॥ बड़े भाग्यहैं महर महरिकी । लैगयो पीठि चढाइ असुर इक कहाकहौं उवरनि या हरिकी ॥ नंदघरनि कुलदेव मनावति तुमहि लाज सुत घरी पहरकी। जहां तहां तुमहि सहाय सदाही जीवन है यह श्याम शहरकी॥ हरप भए नंद करत बधाई दानदेत कहाकहौं महरकी । पंचशब्द ध्वनि वाजत नाचत गावत मंगलचार चहरकी ॥ अंकम भार भरि लेत श्यामको वजनर नारि अतिहि मनहरपी । सूरश्याम संतन सुखदायक दुएनके उरशालक करपी ॥ १४॥ सारंग ॥ खेलन दूर जात कत प्यारे । जयते जन्म भयोहै तेरो तवहीं तेइहि भांति ललारे कोउ आवति युवती मिस कारकै कोउ लैजात वतासकलारे । अवलगि बचे कृपा देवनकी वहुत गए मरिश तुम्हारे।हाहाकरति पाँइ तेरे लागति अब जनि जाहु दूरि मेरेप्यारे । सुनहु सूर यशुमति सुत वोधति विधिके चरित सवै न्यारे।।१५||उन्नीसवांअध्याय ॥ कल्याण॥ कवकी टेरति कुँअर कन्हाई।बालसखा सब टेरत ठाढे अरु अग्रज बलभाई।दाऊजू तुम ह्यां नहिं आवत करो मुखारीआई माता दुहुनि दतौनी करदै जलझारी भरिल्याई ।उत्तमविधिसा मुख पखरायो वोदे वसन अंगोछि । दोउ भैया कछु करौं कलेऊ लई बलाइ कर पोंछि ॥ सदमाखन दधि तुरत जमायो मधु मेवा मिष्टान । सूरश्याम बलराम संग मिलि रुचिकरि लागे खान ॥२०॥ रागनट ॥ चले वन धेनु चरावन कान्ह । गोपवालक कछु सयाने नंदके सुत नान्ह ॥ हर्षसों यशुमति पठाए श्याम मन आनंद । गाइ गोसुत गोप वालक मध्य श्रीनंदनंद । सखा हरिको यह सिखावत छांडि जिनि कई जाहु ।। सघन वृंदावन अगम अति जाइ कहूँ भुलाहु । सूरके प्रभु हँसत मनमें सुनतही यह बात। मैं कहूं नहिं संग छाडौं वनहि बहुत डेरात ॥ २१॥ धनाश्री ॥ हेरी देत चले सव बालक । आनंद सहित जात हरिखेलत संगमिले पशुपालक । कोउ गावत कोउ वेणु वजावत कोउ नाचत कोउ -