(१८२) सूरसागर। सोचति परी खंभारे । सूरश्याम यह कहत जननिसों रहिरी माँ धीरज उरधारे ॥ १ ॥ गौड ॥ भहरात झहरात देवानल आयो । घेरि चहुँ ओर करिसोर अंदोर वन धरणि आकाश चहुँपास छायो॥ वरत वन वाँस थरहरत कुशकांस जरि उडतहै बांस अतिप्रवल धायो। झपटि झपटत लपट पटकि फूल फूटत फटि चटकि लट लटकि द्रुमनवायो।अतिअगिनि झार भार धुधार करि उचटि अंगार झंझार छायो । वरत वन पात भहरात शहरात अरराततरु महा धरणी गिरायो। भए बेहाल सब ग्वाल ब्रजबाल तव शरन गोपाल कहिकै पुकारयो । तृणा केशी शकट वकी बका अघासुर वामकर गिरिराखि ज्यों उवारयौ । नेक धीरज करो जियहि कोऊ जिनि डरौ कहा यह सुरो लोचन सुदायो ॥ मुठीभरि लियो सब नाइ मुखही दयो सूरप्रभु पियो दावानजजन बचायो॥२॥कान्हरो। अबकै राखि लेउ गोपाल । दशहुँ दिशाते दुसह दवागिनि उपजीहै यहिकाल॥ पटकत वांस कास कुश चटकत लटकत ताल तमाल । उचटत अतिअंगार फुटत फर झप टत लपट कराल ॥ धूम धूंधि वाढी धर अंमर चमकत विच विच जाल। हरिण बराह मोर चातक पिक जरत जीव वेहाल ॥ जिनि जिय डरहु नयन मूंदहु सब हसियोले गोपाल । सूर अनल सब वदन समानी अभयकर ब्रजवाल ॥३॥ रागगुंडादावानल अचयो ब्रजराज ब्रजजन जरत बचायो । धरणि आकाशलौं ज्वाल माला प्रवल घेरि चहुँ पास व्रजवास आयो । भये वेहाल सब देखि नंदलाल तब हँसतही ख्याल तत्काल कीन्हो । सपनि मूंदे नयन ताहि चितये सैनतृपा ज्योनीर दव अचैलीन्हो।देखो अब नैनभरि बुझिगई अग्निझरि चितै नर नारि आनंद भारी।सूरप्रभु सुख दियो दवानल पीलियो कहत सब ग्वाल धनि धनि मुरारी॥विहागरो।चकित देखि यह कहि नर नारीधरणि अकास बरावरि ज्वालाझपटत लपट करारीनहिं वरण्यो नहिं छिरक्यो काहू कहँधो गयो विलाइ अति आघात करत वनभीतर कैसे गयो वुझाइ तृणकी आगि वरतही बुझिगई हसि हँसिकहत गुपाल । सुनहु सूर वह करनी कहनी यह ऐसे प्रभुके ख्याल ॥६॥ विलावलाजाके सदा सहाइ कन्हाइ ताहि कहो काको डरभाई ॥ वन घर जहां तहां संग डोलैं । खेलत खात सबनिसों वालें । जाको ध्यान नपा३ योगी॥ सो ब्रजमें माखनको भोगी।जाकी माया त्रिभुवन छावै । सो यशुमतिके प्रेम बधावै ॥ मुनिजन जाको ध्यान नपा ॥ ब्रजजन लैलै नाम बुलाबैं । सूर ताहि सुर अमर देखें ॥ जीवन जन्म ब्रजहिको लेखें ॥६॥ कान्हरो ॥ ब्रजवनिता सब कहति परस्पर नंदमहरको सुत बड़ वीर । देखहुधौं पुरुषारथ इनको अति कोमल तनुश्याम शरीर ॥ गयो पताल उरग गहि आन्यो ल्यायो तापर कमललदाइ । कमलकाज नृप ब्रज मारतही कोटि जलज तेहि दिये पठाइ ॥ दावा गिनि नभ धराण बरावरि दशहूदिशते लीनो घेरि ॥ नयन मुँदाइ कहा तेहि कीन्हों कहूं नहीं जो देखै हेरि ॥ ए उत्पात मिटत इनहींपै कंस कहा वपुरोहै छार । सूर श्याम अवतार बडो ब्रज येईहें करता संसार ॥७॥ सोरठ ॥ अतिसुंदर नंद महर डिठोना । निरखि निरखि ब्रजनारि कहति सब ये जानत कछु टोना ॥ कपटरूपकी त्रिया निपाती तबहिं रहे अतिछौनाद्वारशिलापर पटकि तृणाको वैआयो अवपौना ॥ अधा बकासुर तबहिं संहारयो प्रथम कियो वन गौना । सूर प्रगट गिरिधरयो वामकर मैं जानति वलिवौना ॥ ८॥ मारू ॥ दवाते जरत ब्रजजन उवारे। पैठिनलगयो गहि उरग आन्यो नाथि प्रगट फन फनान प्रति चरणं धारे । देखें मुनि लोक सुरलोक शिवलो कके नंद यशुमति हेतु वशमुरारी।जहां तहां करत स्तुति मुखनि देव नर धन्य शब्दतिहुँ जय भुवन धारी।सुखकियो यमुनतट एक वासर रौने प्रातही.बज गये गोप नारी।सूरप्रभु श्याम बलराम नंद % 3D -
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