दशमस्कन्ध-१० । (१७७) सुनी नारद मुखवानी । वार वार ऋपिकाज कंस मुख स्तुति गानी ॥ धन्य धन्य | मुनिराज तुम भलो मंत्र दियो मोहि । दूत चलायो तुरतही अवहिं जाहि व्रज जोहि ॥२॥ इह कहियो तू जाइ कमल नृप कोटि मँगायो । पत्र दियो लिखि हाथ कयो बहुभांति जनायो। कालि कमल नहिं आवई तो तुमको नहिं चैन । शिरनवाइ करजोरिकै चल्यो दूत सुनि वैन ॥३॥ तुरत पठायो दूत नंद घरही में आयो। कमल फूलके भार कसनृप वेगि मँगायो। काल्हि न पहुँचें आइकै तब बसियो ब्रजलोग । गोकुलमें जे सुखकिये ते करि देहौं सोग ||॥ जो न पठावह पहप कहोगे तैसी मोको।यह जानहु गोपन समेत धरिल्याऊतोकोविल मोहन तेरे दोउनको पकरि मगाऊँ कालि। पुहुप वेगि पठए वनै जोरे वसौ ब्रजपालि||यह सुनि नंद डराय अतिहि मन मन अकु लानो । यह कारज क्यों होइ काल अपनो करिजानो ॥ और महर सब बोलिलै कैसी करें उपाइ। कालि प्रात न मारिहै वांधि सनि लैजाइबिल मोहनको नाउँ घरयो कहि पकरि मँगावन। जाते अति भयो सोच लगत सुनि मोहिं डरावना।यह सुनि शिरनाये सवन मुखहि न आवैवात । वारवार नेद कहतहैं यह लरिकन परघात ॥७॥ की वालकाने भगाइ जाहिले आन भूम्यपर। वरु हमको लैजाइ श्याम वलराम वचै घर ।। महरि सबै ब्रजनारिसों कहि पूछत कौन उपाउ। जनमहित करवरटरी अवके नहीं वचार ॥८॥ कोउ कहै देह दाम नृपति जितनो धन चाहै। कोउकहै जैये शरन सबै मिलि बुधि अवगाहै । यही सोच सब पगिरहे कहूँ नहीं निरवार व्रज भीतर नंदभवनमें घर घर इहै विचार ॥ ९॥ अंतर्यामी जानि नंदसों बूझत बात । कहा करतहो सोच कहो कछ मोसों तात ।। कहा कहौं मेरे लाडिले कहत बड़ो संताप । मथुरापतिक जी कछ. तुमपर उपज्यो पाप ॥ १० ॥ कालीदहके पुहुप मांगि पठये हमसों उनि । तवते मोजिय सोच | जयहिं ते वात बुरी सुनि ॥ जोनहिं पठवहुँ कालिही तो गोकुल देउँ लगाइ। मो समेत दोउ.बंधु तुम कालिहि लेइ बधाइ ॥ ११॥ यह कहि पठयो कंस तवहि ते सोच परयो मोहिं । प्रथम पूतना आइ बहुत दुख दये जो गई तोहि ॥ तृणावर्तके घात ते बहुत बच्यो दुखपाइ । शकटा केशीते वच्यो अब को करै सहाइ ॥ १२ ॥ अघा उदरते बच्यो बहुत दुख सह्यो कन्हाई । वकारह्यो मुखवाइ तहां भयो धर्म सहाई ॥ इतने करवर हैं टरे देवनकिये सहाइ । तवते अव गाढीपरी मोको कछु न सुहाइ ॥ १३॥ वावा तुमहीं कहत कौन धौ तोह उपारे । सोइ ब्रजदेवता प्रगट कंसगहि केशपछारे । यह जवहीं हरिसों सुनी नंदमनहि पतिआइ । गगन गिरत जो संगरह्यो सो करि लेइ सहाइ ॥ १४ ॥ नंदहि यह समुझाइ कान्ह उठि खेलन धाए। जहां ब्रज वालक बहुत तुरत तहां आपुन आए ॥ गोपसुतनिसों यह कह्यो खेलें गेंद मँगाइ । श्रीदामा इह सुनतही घरते लाये जाइ ॥ १५ ॥ सखा परस्पर मारकरें कोट कानि नमाने । कौन बडो को छोट भेद भेदा नहिं जाने। खेलत यमुना तट गए आपुहि ल्याए टारि श्रीदामाके हाथते लै गेंद दयो दहडारि ॥ १६॥ श्रीदामा गहि फेट कहो हम तुम एक जोटा । कहा भये जो नंद बड़े तुम तिनके ढोटाखिलत में कहा छोट बड हमहुँ महरके पूत । गेंद दियेही पैवनै छोडिदेहु मद धूत ॥१७॥ तुमसों धूत्यो कहा करौं घूत्या नहिं देख्यो । प्रथम पूतना मार काग शकटासुर पेख्यो तृणावर्त पटक्यो शिला अघा वका संहारि ॥ तुम तादिन संगही रहे अव धूतन कहत सँभारि॥ ॥१८॥ टेढे कहा बतात कंसको कमल देहु अव । कालिहि पठएमाग पुहुप अब लै देहौ जव ।। बहुत अचगरी जिनकरौ अजहूं तजौ झवारि । पकार कंस लैजाइगो कालिहि सूर खंभारि ॥१९॥
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