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दशमस्कन्ध-१० (१७) जन केरे ॥ ७६ ॥ चरणकमलवंदौं जगदीश जे गोधनके संगधाए। जे पदकमल धूरि लपटालो कर गहि गोपी उरलाए ॥ जे पदकमल युधिष्ठिर पूजे राजसूइ पै चलिआए। जे पदकमल पितामह "भीपम भारत में देखनपाये। जे.पदकमल शंभु चतुरानन हृदयकमल अंतररापे ॥ जे पदकमल रमाउर भूपणं वेद भागवत मुनि भाषे । जे पदकमल लोकपावन त्रय वलिराजाके पीठ धरे। ते पद कमल सूरके स्वामी कालीफनपर निर्तकरे ॥ ७७॥ गिरिधर ब्रजधर मुरलीधर धरनीधर पीतांवर धर मुकुट धर गोप धर उधर शंखधर सारंगधर चक्रधर गदाधर रस धरें अधर सुधाधर ॥ कंचुकंठधर कौस्तुभमणिधर बनमाला धरधर मोतीवाला कालीफनप्रति चरणधर । सूरदासके प्रभु जगतधर भक्तधर दुष्टकंसके धर ॥ ७८ ॥ गरुड़ त्रासते जो ह्यां आयो। तौ प्रभु चरण कमल फन फन प्रति अपने शीश धरायोधिनि ऋषि शाप दियो खग पतिको ह्यां तव रह्यो छपाइ । प्रभुवाहन डर भाजि बच्यो अहि नातर लेतो खाइ। यह सुनि कृपा करी नँदनंदन चरणचिह्न प्रगटाए । सूरदास प्रभु अभय ताहिकरि उरग द्वीप पहुँचाए ॥ ७९ ॥ अतिवल करि करि काली हारयो । लपट गयो सब अंग अंग प्रति निर्विप कियो सकल. अल झारयो । निर्तत पद पटकत फन फन प्रति वमत रुधिर नहिं जात सँभारयो ॥ अति बलहीन छीन भए तेहिछन देखियतहै रज्या समडारयो । तियविनती करुणा उपजी जिय राख्यो श्याम नहीं तोह मारयो । सूरदास प्रभु प्राणदान कियो पठयो सिंधु वहाते टारयो ।।८०॥ खेलत खेलत जाइ कदम चढ़ि झप यमुनाजल लीनो।सोवत काली जाइ जगायो फिरि भारत हार कीनो ॥ उठि युवती करजोरि विनती कार श्याम दान हम दीजै । टूटत फनफाटत तनु देही दुहुँ दिशि कान्ह निहोरोलीजै ॥ तव अहि छाँड़ि दियो करुणामय मोहन मदन मुरारी। सागरवाज्यादियो कालीको सूरदास बलिहारी॥८॥कल्याण ॥ जय जय ध्वनि अमरन नमकीन्हों। धन्य धन्य जगदीश गुसांई अपनो करि अहि लीन्हो ॥ अभय कियो फन चिह्न चरणधीर जानि आफ्नो दास । जलते कादि कृपाकरि पठयो मेटिं गरुड़को त्रास ॥ स्तुति करत अमरगण वहुरे गए आपने लोक । सूर श्याम मिलि मात पिताको दूरिकियो तनुसोक॥२॥कान्हरोलीन्हों जननी कंठ लगाइ। अंग पुल कित रोम गदगद सुखद अंशु वहाइमैं तुमहिं वरजतिरहौं हरि यमुनतट जिनिजाइ॥कह्यो मेरो कियो कान्ह नहिं गये खेलन धाइ । कंस कमल मँगाइ पठए तात गएउ डराइ मैं कह्यो निशस्वमतोसों प्रगट भई सो आइग्विालसँग मिलि गेंद खेलत आए यमुनातीराकाहूलै मोहिं डारि दीन्हों कालिया दह नीरा।यह कही तव उरग मोसों किनि पठायो तोहिमैं कही नृपकंस पठयो कमलकारण मोहिं॥ यह सुनत डर कमलदीन्हों मोहि लियो पीठ चढाइ । सूर यह कहि जननि बोधी देखो तुमही आइ ॥ ८३ ॥ गौरी ॥ व्रजवासिनसों कहत कन्हाई । यमुनातीर आज सुख कीजै यह मेरे मन आई ॥ गोपन सुनि अति हर्प वढायो सुखपायो नंदराई । घर घरते पकवान मँगायो ग्वालन दिये पठाई ॥ दधि माखन पटरसके भोजन तुरतहि ल्याए जाई ।मात पिता गोपी ग्वालनको सूरज प्रभु सुखदाई ॥८४ ॥ तुरत कमल अब देहु पठाइ । सुनहु तात अब विलम न कीजै कंसचदै व्रज ऊपर आइ । कमल मँगाइ लिये तट ऊपर कोटि कमल तब दिये पगइ। बहुत विनय करि पाती पठई नृपलीजै सब पुहुप गनाइ ॥ तैसी मोको आज्ञादीजै बहुत धरे जल मांझ सजाइ । सूरदास नृप तुव प्रतापते काली आप गयो पहुँचाइ ॥ ८५ ॥ सोरठ॥ सहस शकट भरि कमल चलाए । अपनी सम सरि और गोप जे तिनको साथ पठाए । और बहुत कांवरि माखन