दशमस्कन्ध-१० (१७३) -सूरके प्रभु श्यामलोकाभिराम विन जानि अहिराज विपज्वाल परौ ॥ ५७ ।। ॥रागनट ॥ इनकोलै व्रजलोग दिखाऊं। कमल भार इनहीपै लादौं इनको आपु जनाऊं। मात पिता अतिही दुख पावत दरशनदै मन हरप कराऊ । कमल पठाइ देउँ नृपराजहि कालि कह्यो ब्रजऊपरधाऊमन मन करत विचार श्याम यह अब कालीको दाँव दिवाऊं । सूरदास प्रभुकी यह वाणी ब्रजवासिनको दुख विसराऊ॥ १८ ॥ कान्हरो ॥ उरगनारि सब कहत परस्पर देखहु या बालककी वात । विपज्वाला जल जरत यमुनको याके तन लागत नाहं तात ॥ यह कछु यंत्र मंत्र है जानत अतिही सुंदर कोमलगात । यह अहिराज महाविषज्वाला कितने करत सहसफन पाता।छुअत नहीं तनुयाको विष कहुँ अवलौं वच्यो पुण्य पितु मात । सूरश्याम सों दाँव बतायो कालीअंग लपेटत जात ॥१९॥ विलावल ॥ उरग लियो हरिको लपटाइ । गर्व वचन कहि कहि मुख भापत मोको नहिं जानत अहिराइ लियो लपेटि चरणते शिखलौं अति यहि मोसों करी ढिठाइ। चांपी पूछ लुकावत अपनी युवतिनको नहिं सकत दिखाय ॥ प्रभु अंतर्यामी सब जानत अब डारों यह सकुच मिटाइ ॥ सूरदास प्रभु तनु विस्तारयो काली विकल भयो तव जाइ॥६०॥कान्हरो जवाहं श्याम तनु अति विस्तारचौ । पट पटात टूटत अंग जान्यो शरण शरण अहिराज पुकारचौ॥ यह वाणी सुनतहि करुणामय तवहिं गए सकुचाई।इहै वचन सुनिद्रुपदसुतामुख दीन्हो बसन बढ़ाई इहै वचन गजराज सुनायो गरुड छडि तहां धायोयहै वचन सुनि लाखा गृहमें पांडव जरत बचाये यहवाणी सहिजात न प्रभु सों ऐसे परमकृपालासूरदास प्रभु अंग सकोरयो व्याकुल देख्यो व्याल|| ॥६१ ॥ गौरी ॥ नाथत व्याल विलंब न कीन्हो। पगसों चापि पींच बलतोरयो फोरि नाक करसों गहि लीन्हो ॥ कूदिचढे ताके माथेपर काली करत विचार । श्रवणन सुनी रही यह वाणी ब्रजलै है अवतार ॥ तेइ अवतरे आइ गोकुल में मैं जानी यह वात । स्तुति करन लग्यो सहसौफन धन्य धन्य जगतात ॥ वार वार कहि शरण पुकारयो राखि राखि गोपाल । सूरदास प्रभु कहत सकुचि गए शरण कहत तव व्याल ॥ १२॥ विलावल ॥ देखि दरश मन हरप भयो । पूरणब्रह्म सनातन तुमही व्रज कृष्णा अवतार लयो ॥ श्रीमुख करो अजौंलौं तुम नहिं जानो ब्रह्म अवतार। और कौन जो तुमसों वाचै सहसफननिकी झार ॥ अनजानत अपराध किये बहु राखि शरण मोहिं लेहु । सूरदास प्रभु धनि मेरे फन चरण कमल जहां देहु ॥ ६३॥ गौरी ॥ अब कीन्हों प्रभु मोहिं सनाथ । कोटि कोटि कीटहु सम नाहीं दरशन दिये जगतके नाथ ॥ अशरन शरन कहावतही तुम कहत सुनी भक्तनि मुखवात । ये अपराध क्षमा सब कीजै धृग मेरी बुधि कहत डरात ॥ दीनवचन सुनि कालामुखते चरण धरे फन फन प्रति आप। सूरश्याम देख्यो अहि व्याकुल सुख दीनो मेटे त्रय ताप ॥६॥ यशुमति टेरति कुँवर कन्हैया। आगे देखि कहति बलरामहिं कहां रह्यो तुमभैया॥ मेरे भैया आवत अवहीं तोहिं दिखाऊं मैया। धीरज करहु नेक तुम देखहु यह सुनि लेति वलैया ॥ पुनि यह कहति मोहिं परवोधत धरणि गिरी मुरझैया । सूर विनासुत भई अति व्याकुल मेरो वाल नन्हैया।।६६||सारंगोभरोसो कान्हको है मोहि।सुन यशुदा कालीके भयते तू जिनि व्याकुल होहि।।पहिले पूतना कपटकै आई स्तनविषया थोहि।वह वैसी ज्यों प्रबल दै दिनके वालकमारि दिखा वत तोहिं ॥ अघा वका धेनुक तृणावर्त केसीको बल देख्यो जोहि । सात दिवस गोवर्धन राख्यो इंद्र गयो दपु छोहि । सुनि सुनि कथा नंदनंदनकी मन आयो अवरोहि । सूरदास प्रभु जो | कहिये कछु सो आवै सव सोहि ॥६६॥ सारंग ॥ यमुना तोहि वह्यो क्यों भावै । तोमें कृष्णहेलुवा ।
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