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दशमस्कन्ध-१० (१७१) गुणको जाने कहत और कछु और उपाव ॥३८॥ गौरी ॥ लैगए टारि यमुनतट ग्वालनि । आपुन जात कमलके काजहि सखा लिए संग ख्यालीन ॥ जोरी मारि भजत उतहीको जात यमुनकेती। इकधावत पाछे उनहींके पावत नहीं अधीर ॥ रोंगटि करत तुम खेलतही में परी कहा यह वानि । सूरश्याम सों कहत ग्वाल सब तुमहि भले करि जानि ॥ ३९ ॥ श्याम सखाको गेंद चलाई। श्रीदामा मुरि अंग वचायो गेंद परयो कालीदह जाई ॥धाइ गयो तव फॅट श्यामकी देहु न मेरो गेंद मँगाई । और सखा जिनि मोको जानो मोसों जिनि तुम करौ ढिठाई ॥ जानि बूझिं तुम गेंद गिरायो अब दीन्हेही वनै कन्हाई। सूरसखा सब हँसत परस्पर भलीकरी हरि गेंद गिराई४०॥सोरठ।। फेंट छांडि देहु मेरी श्रीदामा । काहेको तुम रारि बढ़ावत तनक बातके कामा। मेरो गेंद लेहु ता वदले बाँह गहतहौ धाइ । छोटो वड़ो न जानत काहू करत वरावरि आइ ॥ हम काहेके तुमहि वरावरि बड़े नंदके पूत । सूरश्याम दीन्हेंही वनिहै बहुत कहावत धूत ॥ कल्याण ॥ तोसों कहा धुताई करिहौं । जहां करी तहँ देखी नाहीं कहा तोसों में लरिहौं ॥ मुंह सँभार तू बोलत नाही कहत परावरि वात । पावहुगे अपनो कियो अवहीं रिसन कैंपावत गात ॥ सुनहु श्याम तुमहूं सरि नाहीं ऐसे गये विलाइ । हमसों सतर होत सूरजप्रभु कमल देहु अवजाइ ॥४२॥ हमहीं पर सतरात कन्हाई । प्रथमहि कमल कंसको दीजै डारहु हमाह मराई॥ सांच कहों मैं तुमहि श्रीदामा कमलकाज मैं आयो । कहाकंस वपुरो केहिलायक जाको मोहि डरायो।।अघा वका केशी शकटासुर तृणा शिला पर डारयोविकी कपटकरि प्यावन आई ताको तुरत पछारयो॥ कालीदह जल छुवत मरे संव सोइ काली धरि ल्याऊँ । सूरदास प्रभु देहधरेको गुणप्रगटों एहि ठाऊँ॥४३॥ सोरठ ॥ रिसकरि लीन्हीं फेंट /ड़ाई । सखा सबै देखतहैं ठाढे आपुन चढे कदमपर धाई ॥ तारी दॆदै हँसत सवै मिलि श्यामगए तुम भाजि डराई । रोवतचले श्रीदामा घरको यशुमति आगे कैहों जाई ।। सखा सखा कहि श्याम पुकारयो गेंदें आपनो लेहु नआई । सूरश्याम पीतांवर काछे कूदि परे दहमें भहराई ॥४४॥ रागगौरी ॥ हाइहाइ करि सखनि पुकारयो । गेंदकाज यह करी श्रीदामा नंदमहरको ढोटामारयो ॥ यशुमति चली रसोई भीतर तवहिं ग्वालि इकछीकी। ठठकि रही द्वारेपर ठाढी वात नहीं कछु नीकीआइ अजिर निकसी नंद रानी वहुरो दोप मिटाइ । मंजारी आगे दैनिकसी पुनि फिरि आँगन आइ ॥ व्याकुलभई निकसि गई वाहिर कहांधी गयो कन्हाई । वायोकाग दहिनो खर शूकर व्याकुल घर फिरि आई। सन भी तर खन वाहिर आवति खन आँगन केहिभांति । सूरश्यामको टेरत जननी नेक नहीं मनशांति॥ ॥४६॥ देखे नंदू चले घर आवत । पैठत पोरि छीक भई बाई रोइ दाहिने थाह सुनावत ॥फटकत श्रवन श्वान द्वारे पर गररी करत लराई । माथे परदै काग उडानो कुशगुण बहुतकपाई ॥ आए नंद घरहि मनमारे व्याकुल देखी नारी। सूर नंद युवती सों बूझत विन छवि वदन निहारी॥४६॥ नट ॥ नंद घरनिसों वूझत पात । वदन झुराय गयो क्यों तेरोकहां गयो पल मोहन तात ॥ भीतर चली रसोई कारण छीकपरी तब आँगनआई। पुनि आगे ढगई मंजारी और बहुत कुश गुण में पाई ॥ मोहि भए कुशगुण घर पैठत आजु कहा यह समुझि नजाई। सूरश्याम गए आजु कहाँधौं वार वार बूझत नंदराई ॥ १७ ॥ महरि महर मन गए जनाइ । खनभीतर खन आंगन ठाढे खन बाहर देखतहैं जाइ ॥ यहि अंतर सब सखा पुकारत रोवत आए व्रजको धाइ । आतुरगए नंद घरहीको महरि महरसों वात सुनाइ ॥ चकितभई दोउ बूझन लागे कहाँ