(१६८) सूरसागरं । निकसे करे कैसे ख्याल । मुरछि काहे गिरे धरणी कहा यह जंजाल । मैं यहां जो आइ देखो परे । सब बेहाल ॥ आनि अचयो जल यमुन को तबाहि गए अकुलाइ । निकसिकै जर कूल आए गिरि परे सव आइ ॥ प्राण विनु हम सब भयेते तुमहिं दियो जिवाइ । सूरके प्रभु तुम जहां तहँ हहिं । लेत बचाइ ॥ ९ ॥ गौरी ॥ बलदाऊ कहि श्याम पुकारयो । आवहु वेगि चलौ घर जैयै वनहीं में। पनि होत अध्यात्यो। ल्याए वोलि सखा हलधरको हँसे श्याम मुख चाही। बड़ी वेर भई तुमहि । कन्हैया गाइन लेहु निवारी ॥ हेरी देत चले सब बनते गोधन दिए चलाई । सूरदास प्रभु राम श्याम दोउ नजजनके सुखदाई ॥१०॥ वृंदावन प्रवेश शोभा । गौरी ॥ वै मुरलीकी टेर सुनावत। वंदावन बसि वासर सब निशि आगम जानि चले ब्रज आवत ।। सुबल सुदामा अरु श्रीदामा संग । सखा मध्य मोहन छवि पावत । सुरभी गण सव ले आगे करि कोउ टेरत कोउ वेणु वजावत ॥ केकी पच्छ सुकुट शिर भ्राजित गौरी राग मिले रस गावत । सूरझ्यामके ललित वदन पर गोरज छवि कहुँ चंद छपावत ॥ ११॥ हरि आवत गाइनके पाछे । मोर मुकुट मकराकृत कुंडल ॥ नयन विशाल कमलते आछे ॥ मुरली अधर धरन सीखतहैं वनमाला पीतांवर काछे ।। ग्वाल बाल सव वरण वरणके कोटि मदनकी छचिकियो पाछे । पहुँचे आइ श्याम ब्रजपुरमें घरहि चले मोहन वल आछे । सूरदास प्रभु दोउ जननी मिलि लेति वलाइ बोलिमुख वाछ॥१२॥ कल्याण ॥ आनंदसहित सबै घरआए । धन्य यशोदा तेरो वारो हम सब मरत जिवाए। नर वपु धरे देव यह कोऊ आइ लियो अवतार । गोकुल ग्वाल गाइ गोसुतके एई राखनहार ॥ पय पीवत पूतना निपाती तृणावर्त इहिभांति । वृषभासुर वत्सासुर मारयो रामकृष्ण दोउ भ्रात ॥ जयते जन्म लियो ब्रज भीतर तवते इहै उपाइ । सूरश्यामकेवल प्रतापते वन वन चारत गाइ ॥ १३॥ तुम कत गाइ चरावन जात । पिता तुम्हारो नंद महरसों जाके यशुमति सीहै मात ॥ खेलत रहौ । आपने घरमें माखन दधि भावै तव खात । अमृत वचन कही मुख अपने रोम रोम पुलकित सब गात ॥ अव काहूके जाहु कहूं जनि आवतिहै युवती इत रात । सूरश्याम मेरे नैनन आगे रहो काहे कहूं जातहोतात ॥ १४॥ मैया हौं न चरैहौं गाइ । सिगरे ग्वाल घिरावत मोसों मेरे पाँइ ! पिराइ ॥ जौन पत्याहि पूछ बलदाउहि अपनी सौंह दिवाइ। यह सुनि सुनि यशमति ग्वालनिको गारीदेत रिसाइ ॥ मैं पठवत अपने लरिकाको आवै मन बहराइ । सूरश्याम मेरो अति वालक मारत ताहि रिगाइ ॥ १५॥ वल मोहन बनते दोर आए । जननि यशोदा मात रोहिणी हरषि दुहुँनि दोट कंठ लगाए । काहे आजु अवार लगाई काहे कमल वदन कुभिलाए ॥ भूखेभए आजु दोउ भैया प्रात कलेऊ करन नपाए । देखहुजाइ कहा जेवन कियो यशुमति रोहिणि तुरत पठाई । मैं अन्हवाए देति दुहुँनिको तुम भीतर अति झरौ चडाई ॥ लकुट लियो मुरली कर। लीन्हे हलधर दियो विषान । नीलांवर पीतांवर लीन्हें सैति धरति करि प्रान ॥ मुकुट उतार | धरयो मंदिरलै पोंछतिहै अंगधात । अरु वनमाल उतारति गरते सुरश्यामकी मात ॥ १६॥ अंगअभूषण जननि उतारति । दुलरी ग्रीव माल मोतिनकी केउरलै भुजश्याम निहाराति ।। क्षुद्रा। वली उतारति कटिते सैंति धरति मनहीमन वारति । रोहिणि भोजन करहु चडाई वारवार कहि कहि करि आरति ॥ भूखेभए श्याम हलधर ए यह कहि अंतर प्रेम विचारति । सूरदास प्रभु। मात यशोदा पटले दुहुनि अंग रज झारति ॥ १७ ॥ एदोऊ मेरे गाइ चरैया ।। मोल विसाहि लये मैं तुमको तव दोउ रहे नन्हैया॥ तुमसों टहल करावति निशि दिन और न टह ।
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