दशमस्कन्ध-१० (१६७) कलेऊ कान्ह पियारे । माखन रोटी दियो हाथ पर बलि बलिजाउँ हौं खाहु ललारे ॥ टेरत ग्वाल द्वारके ठाढ़े आए तबके होत सवारे । खेलहु जाइ ब्रजहिके भीतर दूरि कहूं जान जैयह प्यारे । टेरि उठेवलराम श्यामकोआवहुधाइ धेनु बन चारोसूरश्याम कर जोरि मातसोंगाइचरावन कहत हमारे। ॥५००॥ बिलावल ॥ मैयारी मोहिं दाऊ टेरत । मोको वन फल तोरि देतहैं आपुन गैयन घेरत ॥ और ग्वाल सँग कबहुँ न जैहों वे सब मोहिं खिझावत । मैं अपने दाऊ सँग जैहों वन देखत सुख पावत। आगेदे पुनि ल्यावत घरको तू मुहि जान नदेति । सूरश्याम कहै यशुमति मैया हाहा करि करि केति ॥ १॥ सारंग ॥ बोलि लियो वलरामहि यशुमति । आवहु लाल सुनहु हरिके गुण कालिहिते लंगरयौ करत अति ॥ श्यामहि जानदेहु मेरे सँग तू काहे डरपावति । मैं अपने ढिगते नहिं टारे जियहि प्रतातिन आवति ॥ हँसी महरि बलकी वा सुनि बलिहारी या मुखकी जाहु लिवाय सूरके प्रभुको कहत वीरके रुखकी॥२॥ रागनट ।। अतिआनंद भयो हरि धाए । टेरत ग्वाल वाल सब आवहु मैया मोहिं पठाए । उतते सखा हसत सब आवत चलहु कान्ह वन देखहु वनमाला तुमको पहिरावहिं धातु चित्रतन रेखहु ॥ गाइ लेइ सवरि घरनते महर गोपके बालक । सूरश्याम चले गाइ चरावन कंस उरहिके शालक ॥ ३॥ रागसारंग ॥ चरावत वृंदावन हरि गाइ। सखा लिए सँग सुवल श्रीदामा डोलतहैं सुख पाइ ॥ क्रीडा करत जहां तहाँ सव मिलि आनंद बढ़ाइ बढाइ। वगरि गई गैयां वन वीथिनि देखी अति बहुताइ॥कोउ गए ग्वाल गाइ बन घेरन कोड गए बछरु लिवाइ । आपुहि रहे अकेले बनमें कहुँ हलधर रहे जाइ ॥ वंशीवट शीतल यमुनातट अतिहि परम सुखदाइ । सूरश्याम तव वैठि विचारत सखा कहां विरमाइ ॥ ४॥ बार बार हरि कहत मनहि मन अवहि रहे सँग चारत धेनु । ग्वाल बाल कोउ कतहुँ न देख्यो टेरत नाव लेत दे सेनु ॥ आलस गात जानि मनमोहन वैठे छाँह करत सुख चैनु । अकनि रहत कहुँ सुनत नहीं कछु नहिं गौरंभन बालक वैनु । तृपावंत सुरभी वालक गण कालीदह अचयो जल जाइ। निकास आइ सब तट ठाढे भए वैठि गए जहाँ तहां अकुलाइ ॥ वन घन ढूंढ़ि श्याम तहां आए गोसुत ग्वाल रहे मुरझाइ । मनमहँ ध्यान करतही जान्यो काली उरग रह्यो ह्यां आइ ॥ गरुड त्रास करि आइरह्यो दुरि अंतर्यामी सबके नाथ । अमृत दृष्टि भरि चितै सूर प्रभु बोलि उठे गावत हरि गाथ ॥५॥ आवहु आवंहु कान्हजू पाईहै सब धेन । कुंज कुंज में देखि रहे तृण चरति परम सुख चैन । द्रुमन चढे सब सखा पुकारत मधुर सुनावह वैन । जनि धापड बलि चरन मनोहर कठिन कंठ मन ऐन ॥वार वार वन कौन उवारै पियो कालीदह फैन । सूरश्याम संतन हित कारण प्रगट भए सुखदैन ॥ ६॥ सारंग ॥ पाई पाईहै भैया कुंज वृंदमें टाली। अबके अपनी हटकि चरावह जैहै हटकी घाली ॥ आवहु वेगि सकल दुहुँ दिशिते कत डोलत अकुलाने । सुनि मृदु वचन देखि उन्नत कर हरपि सवै समुहाने ॥ तुमतौ फिरत अनतहीं ढूंढत ये वन फिरति अकेली। बांकी गाइ कोन पर लैही सघन बहुत दुम घेली ॥ सूरदास प्रभु मधुर वचन कहि राखत सवहि बुलाए । नृत्य करत आनँद गौ चारत सबै कृष्णपै आए ॥७॥ रामकली ॥ ताते तरकि कलो वनमाली । पशु तन चपल स्वरूप न जानत डोलत चाली चाली ॥ धरि तन सगुण त्रिपद पूरण प्रभु आपु कमल प्रतिपाली । यद्यपि वृपभ सुता पति तजिकै फिरति कुमति की पाली ॥ अति श्रम भयो सकल वन ढूँढत वन वेली दो जाली । सूरदास संतन जन हरि हित इहि अब सवते टाली॥ ८॥ नट नारायणी ॥ मोहिं वन छाँडि आए सब ग्वाल । कहांते कहां आइ % 3D
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