- (१६२) सूरसागरे। दोऊ क्रीडत आपु आपु अनुरागे। शोभित शिथिल वसन मनमोहन सुखवत सुखके वागे । मानहुँ । बुझी मदनकी ज्वाला बहुरिप्रजा नर लागे।किबहुँकठि अंश भुज परिकै पीक कपोलनि दागे। आति रसराशि लुटावत लूटत लालच लगे सभागामानहुंसूर कल्पद्रुमकी निधि लै उतरी फल आगोनहि छूटति रति रुचिर भामिनी ता सुखमें दोउ पागे।।५९॥राग मलार उतारतहै कंठहिते हार। हरिहीमि लत होतहै अंतर यह मन कियो विचार ॥ भुजावाम पर कर छवि लागति उपमा अंत न पार। मनहु कमल दल कमल मध्यते यह अद्भुत आकार ॥ चुवत अंग परस्पर जनु युग चंद करता हितवार । रसन बसन भरि चापि चतुर अति करत रंग विस्तार ॥ गुणसागर अरु रससागर निधि मानत सुख व्यवहार । सूरश्याम श्यामा नवसर मिलि रीझे नंदकुमार ॥६॥ कान्हरो॥॥ नवल किशोर नवल नागरिया । अपनी भुजा श्याम भुज ऊपर श्याम भुजा अपने उर धरिया॥ क्रीडा करत तमाल तरुन तर श्यामा श्याम उमॅगि रस भरिया। यों लपटाइ रहे उर उर ज्यों मर कत मणि कंचन में जरिया ॥ उपमा काहि देउँको लायक मन्मथ कोटि वारने करिया । सूरदास बलि बलि जोरी पर नंदकुँवर वृषभानु दुलरिया ॥६१ ॥गोरी। आजु नँदनंदन रंग भरे । विवि लोचन सुविशाल दोउनके चितवत चित्त हरे॥भामिनि मिले परम सुख पायो मंगल प्रथम करें। करसों करज करयो कंचन ज्यों अंबुज उरोज धरे॥आलिंगन दै अधरपान कर खंजन खंज रें। हठ करिमान कियो नव भामिनि तव गहि पाइँ परे।लैगए पुलिन मध्य कालिंदीरस वश अनंग अरे । पुहुप मंजरी मुक्तनमाला अंग अंग अनुराग भरे।सुरति नाद मुख वेन सुधा सुनि तपिअनतप जो टरे। रचना सूररची वृंदावन आनंदकाज करे॥६२॥ नट ॥ हरि हसि भामिनीउर लाइ । सुरतिवंत गुपाल रीझे जानी अति सुखदाइ॥ हरपि प्यारी अंक भरि पिय रही कंठ लगाइ। हाव भाव कटाक्ष लोचन कला कोक सुभाइ ॥ देखि वाला अतिहि कोमल मुख निरखि मुसुकाइ । सूर प्रभु रति. पतिके नायक राधिका समुझाइ ॥६३॥ गौड मलार ॥ नवल सुनि नवल पिया नयो नयो दरश विवि । तन मलमले प्राणपति पीयको अधर धरयोरी।प्रीतिकी रीति प्राण चंचल करत निरखि नागरि नैन | चिवुक सो मोरी।तब कामकेलि कमनीय चंदपचकोर चातक स्वाति बूंदपरयोरि॥ सुनि सूरदास रस राशि रस वरसिकै चली जनु हरति ले कूहूस गोरी ।।यह गवन ॥ राग गौरी ॥ तुरत गए नंद सदन कन्हाई अंकुश दैराधा घर पठई वादर जहँ तहँ दिए उड़ाई॥ प्यारीकी सारी आपुनलै पीतांबर राधा उर लाई । जो देखै यशुमति हरि ओढे मन यह कहति कहा धौंपाई। जननी नैन तवहिं लखिलाने । तपहिं श्याम इक. बुद्धि उपाई । सूरदास सुतसों यशुमति कहै पात उठनियां कहां गवाई ॥६४ ॥ सारंग ॥ पीत उनियां कहां विसारी। यहतो लाल ढिगनिकी और है कास्की सारी॥ हौं. गोधन ।। लैगयो यमुन तट तहां हुती पनिहारी। भीर भई सुरभी सब विडरी मुरली भली सँभारी॥ हौं । लैगयो और काहूकी सो लैगई हमारी। सूरदास प्रभु भली बनाई बलि यशुमति महतारी ॥६॥ धनाश्री ॥ मैयारी मैं जानत वाको । पीत उढनियां जो मेरी लैगई लै.आनौ धार ताको ॥ हरिकी माया कोउ न जानै आँखि धूरिसी दीनी । लाल ढिगनिकी सारी ताको पीत उठनियां कीनी ॥ पीतांवर लै जननि दिखायो लै आन्यो तेहि पास । सूर मनहि मन कहति यशोदा तरुनि पढ़ा वत गास ॥६६॥ श्यामहि देखि महरि मुसुकानी । पीतांवर काके.घर.. विसरयो लाल ढिग नकी । सारी आनी॥ ओढनी आनि दिखाई मोको तरुनिनकी सिखईबुद्धि ठानी। घर घर लै मेरोसुत । भुरवति ऐसी सबै दिननकी जानी.। हरि अंतर्यामीरतिनागर जानि लई जननी पहिचानीः॥ ! .
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