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(१९८) सूरसागर। गोविंद चलत देखियतु नीके। मध्य गुपाल मंडली विराजति कांधे धरि लीएसीके ॥ वछरा बंद | घेरि आगे करि जन जन शृंग वंजाए। जानौं बन कमल सरोवर तजिकै मधुप उनीदे आए.॥ वृंदावन प्रवेश अब मारयो बालक यशुमति तेरो।सूरदास प्रभुसुनति यशोदाचितै वदन प्रभुकेरो। ॥२८॥ बिलावल | आज यशोदा जाइ कन्हैया महादुष्ट इकु मारयो। पन्नग रूप गिले शिश गोसुत यहि सब साथ उवारयो॥ गिरि कंदरा समान भयो बड़ जब अघ वदन पसारयौ । निदार गपाल बैठि सुख भीतर खंड खंड करि डारयौ ॥ याके बल हम वदत नकाह सकल भवन तण. चारयो।जीते सबै असुर हम आगे यह कह उनहि निहारयो।हरषि गए सब कहत महरिसों अवहिं. अघासुर मारयो । सूरदास प्रभुकी यह लीला को को भुलएनपारचौ ॥२९॥ यशुमति सुनि सुनि चकित भई । मैं वरजति बन जात कन्हैया का धौं करै दई ॥ कहां कहांते उपरयो मोहन नेकन तऊ डरात । आप जे कहीं तनकसों बातें सुनहु वनहु में घात।। मेरो कलो सुनो जो श्रवणन कहति. यशोदा खीझति । सूरश्याम कह्यो वनहि न हो यइ कहि मन मन रीझति ॥ ३० ॥ गौरी ॥ मैया बहुत बुरो बलदाऊ । कहन लगे वन वडो तमाशो सब मौंडा मिलि आऊ॥ मोहूंको चुचकार गएलै जहां सघन बन झाऊ । भागि चले कहि गयो वहांते काटि खाइहै हाऊ ।। होहूँ डरप्यो कांपौ पुकारौ दाऊ कोउ नहिं धीर धराऊ। थरसल गयो न भाग सकौं वै भागे जात अगाऊ ॥ मोसों कहत मोलको लीनो आपु कहावत साहु । सूरदास बल बड़े चवाई तैसे मिले सखा- हु॥३३॥ नट हरिकी लीला कहत न आवै। कोटि ब्रह्मांड छनक में नाशै छिनहीमें उपजावै॥ बालक वच्छ ब्रह्म हरिलैगयो ताको गर्व नवावै । ऐसो पुरुषारथ सुन यशुमति खीझति फिरि पछितावै ॥ शिव सनकादि अंत नहिं पावै भक्त वछल कहवावै । सूरदास प्रभु गोकुलमें सो घर घर गाइ चरावै॥ ३२ ॥ सारंग ॥ब्रह्मा बालक बच्छहरे। आदि अंत प्रभु अंतर्यामी मनशाते जो करे॥ सोई रूप वैवालक गोसुत गोकुल जाइ परे। एक वरप निशि वासर रहि सँग काहुन जानि परे॥ त्रास भयो अपराध आप लखि स्तुति करत खरे । सूरदास स्वामी मनमोहन तामे मन न धरे॥३३॥ राग नट ॥ तब हार हरयो विधिको गर्व । वच्छ वालक लैगयो धरि तुरत कीन्हों सर्व ॥ब्रह्म लोक चुराइ राख्यो चरित देखन आप।बच्छ बालक देखिकै मन करत पश्चात्तापु॥ तब गयो विधिः लोक अपने दृष्टिकै फिरि आइ।जानि जिय अवतार पूरण परयो पाँयनि धाइ।बहुतमैं अपराध कीनो क्षमा कीजैनाथ। जानि यह मैं नहीं कीन्हीं जोरि कर रह्यो माथ ॥ वच्छ बालक आनि सन्मुख शरण शरण पुकारि । सूरप्रभुके चरण गहि कहि निकट राखु मुरारि ॥३४॥ धनाश्री ॥ ब्रज व्यवहार निरखिकै नैननि ब्रह्माको अभिमान गयो । गोपी ग्वाल फिरत सँग चारत होहूं क्योंन भयो॥ व्यंजन वरा करवर पर राखत ओदन मधुर दयो । आपन खात खवावत औरन कवन विनोद ठयो। सखा संग पयपान करावत अपनो हाथ लियो । शंकर ध्यान धरत युग वीते इह रस तऊन दयो । अहो भाग अहोभाग नंदसुत तपको पुंज लियो । लीला सुभग सूरकी ब्रजमें सबकोउ गाई जियो । ॥३५॥ जयतश्री ॥ वदत विरंचि विशेष सुकृत ब्रजवासिनके। श्री हरि जिनके भेष सुकृत ब्रजवा सिनके । ज्योति रूप जगनाथ जगत् गुरु जगत पिता जगदीश। योग जज्ञ जप तप में दुर्लभ गइ यां गोकुल ईश ॥ इक इक रोम विराट कोटि तन कोटि कोटि ब्रह्मंड सो लीन्यो अवछंग यशोदा अपने भरि भुजदंड ॥ जाके उदर लोक त्रय जल थल पंचतत्त्व चौखानि । सो बालकदै झुलत पलना यशुमति भवनहि आनि ॥ क्षिति मिति त्रिपदःकरी करुना मै वलि छलि.