दशमस्कन्ध-१० (१५३) कुलाहल धौरी धूमरि धेनु वोलाए। सुरभी हाँकि देत सब जहां तहाँ टेरि हेरि सुरगाए। पहुँचे आइ वि पिन घन वृंदा देखत द्रुम दुख सबनि गवाए। सूरश्याम गए अघा मारिजव तादिन ते यहि वन अब आए ८४॥ नटनारायणी ॥ चरावत वृंदावन हार धेनु । ग्वाल सखा सब संग लगाए खेलतहैं कार चैनु । कोउ गावत कोउ मुरली वजावत कोउ विपान कोउ वेनु । कोउ निर्तत कोउ उघटि तारदै जुरि व्रजवालक सेनु । त्रिविध पवन जहँ वहत निशिदिवस सुभगकुंज घनएनु। सूरश्याम निज धाम विसारतआवत यह सुख. लेनु ॥८६॥ धनाश्री ॥ वृंदावनमोको अति भावत । सुनहु सखा तुम सुवल श्रीदामाबजते वन गऊ चारन आवत ॥ कामधेनु सुरतरु सुख जितने सभा सहित वैकुंठ बोलावत। यह वृंदावन यह यमुना तट ये सुरभी अति सुखद चरावत ॥ पुनि पुनि कहत श्याम श्रीमुखते तुम मेरे मन अतिहि सुहावत । सूरदास सुनि ग्वाल चकृत भये यह लीला हरि प्रगट देखावत ॥८६॥ बिलावल ग्वाल सखा करजोरि कहतहैं हमहिं श्याम तुम जिनि विसरावहु । जहां जहां तुम देह धरतही तहां तहां जनि चरन छडावहु । व्रजते तुमहिं कहूंनहिं टारों इहै पाइ मैंहूं व्रज आवत ॥ यह सुख नाहीं भुवन चतुर्दश यह ब्रज यह. अवतारखतावत । अवर गोप जेबहुरि चले घरतिनसों कहि मुख छाक मँगावत । सूरदास प्रभु गुप्त बात सव ग्वालनसों कहि कहि सुख पावत ॥ ३८७॥ बिलावल ॥ कन्है याहेरिदे सुभग सांवरे गातकी मैं शोभाकहत उजाउँ। मोरपंख शिर मुकुटकी मुख मटकनिकी बलि जाउँ ॥ कुंडल लोल कपोलनि झाई विहँसनि चितहि चुरावैदशन दमक मोतिन्ह लर ग्रीवा शोभा कहत न आवै ॥ उरपर पदिक कुसुम वनमाला अंगधुकधुकी बिराजै। चित्रित वाहु पौचिआ पौंचे हाथ मुरलिकाछाजै । कटि पटपीत मेखला मुकुलित पाइन नूपुरु सोहै ।आस पास पर ग्वालमंडली देखत त्रिभुवन मोहै । सब मिलि आनंद प्रेम बढ़ावत गावत गुण गोपाल । यह सुख देखत श्याम संगको सूरदास सब ग्वाल||३८८॥कान्ह कांधे कामरिलकुट लिए कर धेरैहौं। वृंदावन में गऊचरावे धौरी धूमरि टैरहौं ॥ लिये लिवाइ ग्वाल बुलाय जहाँतहाँ वन वन हेरेहौं। सूरदास प्रभु सकल लोक पति पातांवर कर फेरहौं।३८९॥सोई हरिकांथ कामरी काछे किये नागे पाइन गाइनकी टहल करतहैं। त्रिभुवनपति दिनपति नारी नरपति पंछिनपति रविशशि जेहि डरतहैं। शिव विरंचि ध्यान धरत भक्त त्रिविध ताप हरत तेहि तब उधरतहैं । सूरदास प्रभुके गुण निगम नेति नेति गावत तेई वन विहर तहैं ॥ ॥३९० ॥ नट ॥ छाक लेन जे ग्वाल पठाए। तिनसों बूझति महरि यशोदा छांडि कन्हैयहि आए। हमहिं पठाय दिये गैंद नंदन भूखे अति अकुलाए । धेनु चरावतहैं वृंदावन हम यहि कारण आए। यह कहि ग्वाल गए अपने गृह वनकी खवरि सुनाए । सूरश्याम बलराम प्रातही अध- जेवत उठि धाए ॥९१॥ सारंग ॥ और ग्वाल सब गृह आए गोपालहि वेर भई । अतिहि अवेरभई लालनको अजहुँन छाक मँगाई ॥ तवहीते भोजन कार राख्यो उत्तम दूध जमाई । नाजानौ कान्ह कौन वन चारत अतिहि अबेर लगाई ॥ राज्य करें वै धेनु तुम्हारी नंददि कहत सुनाई ॥ पंचकी भीख सूर बल मोहन कहति यशोदा माई ॥१२॥सारंग।।जोरतिछाक प्रेमसों मैया । ग्वालन बोलि लए अध जैवत उठि दौरे दोउ भैयातवहींते भोजन कीनो चाहत दियो पठाई भूखे भए आजु दोउ भैया आपहि वोलि मँगाई ॥ सद माखन साजो दाध मीठो मधु मेवा पकवान । सुरश्यामको छाक पठावति कहति ग्वारि सों जान ॥ ९३॥ सारंगा घरहीकी यक ग्वारि बोलाई । छाक समग्री सवै जोरिकै वाके करदै तुरत पठाई ॥ कह्यो ताहि वृंदावन जैये तू जानति सब प्रकृति कन्हाई। प्रेम सहित लै चली छाक वह कहाँ वे हैं भूखे दोउ भाई।तुरत जाइ वृंदावन पहुँची ग्वाल वाल कहुँ
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