(१५) सूरसागर। जानी यह बात सही परि ॥ पुनि पुनि कहत धन्न नंद यशुमति जिन इनको जन्मौ सोधन्य घरि । कहतईहै सब जात सूर प्रभु आनंद आंसू भरित लोचन भरि।।७१॥कान्हरो ब्रज वालक सब जाह तुरतही महर महरिके पाँइ परे । ऐसो पूत जनौ जग तुमही धन्य कोप जहँ श्याम धरे।। गाइ लिवाई गए वृंदावन चरत चली यमुना तट हरि । असुर एक खगरूप रह्यो धरि बैठो तीर वाइ मुख घेरि चोच एक पुहुमी करि राखी एक रह्योती गगन लगाई।हरिहम वरजत पहलेहि धायो वदन चीरि पलमाहिं गिराई । सुनत नंद यशुमति चकृत चित सुन चकृत नर नारी। सूरदास प्रभु मन हरि लीनो तन जननी भरि लई अंकवारी ॥७२॥ अथ बादशमो अध्याय ॥१२॥ अघासुरवध ।। धनाश्री ।। नंदसत ला डिले हौसब ब्रजजीवन प्रानावारवारतमा कहै जागौ श्याम सुजान यशुमति लोतवलाइ भोर भयो उठो कन्हाई । संग लिये सब सखा द्वारे गढ़े चल भाई ॥ सुंदर वदन देखाइये हरौ नैननको तापु नैन कमल मुख धोइये कछु करौ कलेऊ आषु ॥ माखन रोटी लेहु सद्यदधि रौनि जमायो । पट रसके मिष्टान्न सोई जेवहु रुचि आयो ॥ मोपै लीजै मांगिकै जोइ जोइ आवै।तोहिंब संग जेवहि बल राम तुम रुचि उपनावहु मोहि । तव हँसि चितए श्याम सेजते ददन उघारयो । मानहु पयनिधि मथत फेन फटि चंद उजाग्यो। सखा सुनत देखन चले मानहुं नैन चकोर । युगल कमल मानौ इंदु पर बैठ रहे अति भोर ॥ तब उठि आए कान्ह मातु जल वदन पखारयो। बोलि उठे बलराम श्याम कत उठ्यो सवारयो॥ दाऊजू कहि हँसि मिले वाह गहि वैठाइ । माखन रोटी सबदही हो जेवत रुचि उपजाइ॥ जल अचयो मुख धोइ उठे वल मोहन भाई । गाइ लई सब घेरि चले वन कुँवर कन्हाई । टेरसुनत बलरामकी आए बालक धाइाले आए सब पीरकै वरते बछरा गाइसखन्ह कान्ह सों कही आज वृंदावन जैये । यमुना तट तृणवहुत सुरभि गण तहां चरैये। ग्वाल गाइ सव लै गए वृंदावन समुहाइ । अतिहि सघन वन देखिकै हरपि उठे सव गाइ । कोउ टेरत कोउ हांकि । सुरभि गण जोरि चलावत। कोउ कोउ हेरी देत परस्पर श्याम सिखावत ॥ अंतर्यामी कहतनीय सब हमर्हि सिखावत ढेरी। श्याम कहत अवके गई पुनि धौली जहु फेरी ॥ कोड सुरली कोउ वेणु शब्द शृंगी को पूरे ॥ कृष्ण कियो मन ध्यान असुर इकु वस्यो अधूरै ॥ बालक बछरारखिही एक वार ले जाकछुक जनाऊ अपनपौ हो अपलौं रहो सुभाऊ ॥ असुर कुलहि संहारिधरणि को भार उतारों। कपटरूप रचि रझो दनुज यहि तुरत पछारों । गिरि समान धरि अगग तन वेठो बदन पसारि। मुख भीतर बन घन नदीमायाछल करि भारि ॥ पैठिगए मुख ग्वाल धेनु बछरा संग लीने । देखि महावन भूमि हरे तन तुम कृत कीने ॥ कहनलगे सब आपुसमें सुरभी चरी अपाई। मानहु पर्वत कंदरा मुख सब गये समाई । मुख सब गए समाय असुर तव चोच सकेरयो । अंधकार होय गयो मनहुँ निशिवादर घेरयो।अतिहि उठे अकुलाइकै ग्वाल वच्छ सबगाइ। त्राहि त्राहि कहि कहि कै उठे परे कहाँ हम आइ॥धीर धार कहि कान्ह असुर यह कंदर नाहीअनजानत सब परे अघा | मुख भीतर माही ॥ जिय त्याग्यौ यह सुनतही अव को सकै उवारि । वाते दूनी देह धरि तय असुरन सक्यो सँभारि ॥ शब्द करयो आघात अघासुर टेरि पुकारयो । रह्यो अधर दोऊ चापि बुद्धि वल सुरति विसारयो ॥ ब्रह्मद्वार फिरि फाटिकै निकसे गोकुलराइ । बाहिर आवहु निकसिकै मैं करि लियो सहाइ।। बालक बछरा धेनु सबै मन अतिहि सकाने ॥ अंधकार मिटिगये देखि जहां तहां अतुराने ॥ आये बाहर निकसिकै मन सब कियो हुलास । हम अज्ञान कत डरतहैं कान्ह हमारे पास।धन्य कान्ह धनि नंद धन्य यशुमति महतारी। धन्य लियो अवतारकाखेिं धनि जियहि दैतारी ॥ गिरि समान तन अगम अगम अति पन्नगकी अनुहारी। हम देखत पल ।
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