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ane- % DE (१४६) - सूरसागर। प्रहारी ।। वार वार चरणन परै धाई कृपा करी भक्तन सुखदाई ॥ साधु साधु कहि श्रीमुख वानी ।। विदाभये इहि भांति वखानी ।। यमलार्जुन प्रभु तारि पठाये । नंद द्वार दोउ वृक्ष गिराये । निरखि यशोदा आंगन आई। दुहं वृक्ष विच बचे कन्हाई॥दौरिपरे ब्रजके नर नारी । नंदद्वार कछु होत गोहारी ॥ देखेआइ वृक्ष दोउ डारे। ये गुण यशुमति आहिं तुम्हारे ॥ तुरत छोरि उसलते ल्यायो । देखत जननि नैन भरि आयो । वदेह हरिकी है माई । जहां तहां विधि होत सहाई॥ प्रथम पूतना मारन आई। पयपीवत वह तहां नशाई ॥ तृणावर्त लैगयौ उड़ाई । आपुहि गिरयो शिलापर आई ॥ कागासुर आवत नहिं जान्यो । सुनी कहत ज्यौलइ परान्यो । शकटासुर पलना। ढिग आयो। को जाने केहि ताहि गिरायो । खेलत में केशीको मारयो। धीच मरोरिवहि धरनि पछारयो । ग्वालनके सँग गये गोचारन । तहां वकासुर लाग्यो मारन || कौन कौन कार पर हरि टारयो यशुमति बांधि अजिर लै डारयो।बहुतै उवरयो आजु कन्हाई। ऊपर वृक्ष गिरो भहराई॥ कहा कहाँ कहतन पनिआवै । तुरत आय हरि कौन बचावै ।। सवहिन पेलि करत मनभाई पुण्य नंदके बच्यो कन्हाई ॥ सुख चूमति लै ले उर लाए। युवतिन करे आधु मनभाए ॥ लै जननी सुत कंठ लगावति । चोरीकी वाते समुझावति ॥ रिसही रिस करत लालसों । भुज बाँधे मन हँसति ख्याल सोंमिरे जो तुम करत अचगरी। उरहन को गढ़ी हैं सगरी।बार वार तन देखति माई। गिरत वृक्ष कहुँ चोट न आई ॥ कहत श्याम मैं अतिहि डेरान्यो । उखल तर मैं रह्यो छिपान्यो । वात सुतहि बूझत नँदरानी । कान्ह कहै मुख उरकी वानी ॥ हरिके चरित कथा नहिं जाने । यशुमति अति बालक करि मान।अखिल ब्रह्मांड जीवके दाता। माखन को वांधतिहै | मातागुण अपार अविगति अविनाशी सो प्रभु घर घर घोष विलासी । ऊखल वघ्यो हेतु भक्तनके येइमाता येइ पिता जगतकोयमलार्जुन को मोक्ष करायोपुत्र हेतु यशुदा गृह आयो।ऐसे हरि-जनके सुखकारी। प्रगटे रूप चतुर्भुज धारी। जो जेहि भाव भजे प्रभु तैसे। प्रेम वश्य हार मिलही जैसे॥ सूरदास यह लीला गावै । कहत सुनत सबके मन भावजोहार चरित ध्यान उर राखौआनंद सदा दुरित दुख नाखै ॥४९॥ मलार ॥ निगम स्वरूप देखि गोकुल. हरि जाको दूरि दरश देवन्हको सो बांध्यो यशोदा ऊखल धरि ॥ चुटकिन दैदै ग्वाल नचावत नाचत कान्ह वाल लीला धरिः । जेहि डर भ्रमत पवन रवि शशि जल सो क्यों डरै लकुटियाके डरि क्षीर समुद्र शैन संतत जेहि माँगत दूधपतोखीदै भरि । सूरदास युणके गाहक हरि रसना गाइ गये अनेक तरि ॥५०॥ सोरठ। जाको ब्रह्मा अंत न पावै । ता नंदकी नारि यशोदा घरकी टहल करावै॥शेष सनक नारद गणेश मुनि जाको गुण नित गावै। निशि वासर खोजत. पचिहारे मनशा ध्याननआवै धन्य धन्य गोकुल धनि वनिता वर निरखति श्याम वधावै । सूरदास प्रभु प्रेमहिके वश संतन दरश दिखावै ॥५३॥ ॥ विलावला गोविंद तेरोइस्वरूप निगम नेति नोति गावैाभक्तके वश श्यामसुंदर देह धरे आवै ।योगी जन ध्यान धरत सपनेहु नहिं पावै । नंद घरनि वांधि वांधि कपि ज्यों नाच नचावगोपी जन प्रेम आतुर तिनको सुख दीनो अपने अपने रस विलास काहू नहिं चीनो ॥ श्रुति स्मृति सब पुरान कहत मुनि विचारी सूरदास प्रेम कथा सवही ते न्यारी ॥१२॥ सारंग ॥ भूखो भयो आजु मेरो बारो । भोरहि ग्वालिनि उरहनो ल्याई उहि यह कियो पसारो ॥ पहिले रोहिणिसों कहि राख्यो तुरत करहु जेवनार । ग्वाल बाल सब बोलि लिये मिाले बैठे नंद कुमार ॥ | भोजन वेगि ल्याउ कछु मैया भूख लगी मोहिं भारी। आज सवारे कछु नहिं खायो सुनत. हेसा