दशमस्कन्ध-१० (१४१) हँसिकै कंठ लगाहु ॥ १३॥ सुचित दै चितै तनै तन ओर । सकुचत शीत भीत ज्यों जलरुह तुव कर लकुट निरखि साख घोर ॥ आनन ललित श्रवत जल शोभित अरुण चपल लोचनकी कोर । डारत मनौं गडूक सुधा भार विधुमंडल ज्यों उभै चकोर ॥ सुभग मृणाल युगल भुज ऊपर बांधे उखल दाम कठोर । मनौं भुवंग भीतरते बांबी पर उरझिरही केचुरि गरजोर।लघु अपराध देखि बहु शोचति निर्दयीहृदय वज्र सम तोर । सूर कहासुत पर इतनी रिस कहिइतनै कछु माखन चोर ॥१४॥ बिलावल ॥यशुदा देखि सुतकी ओर । बाल वैस रिसालपर रिस इती कहाके पोर ।। वार वार निहारि तव तन निमिपदाधि मुख चोर । तरनि किरनिके परशि मानौ कुमुदि विधु मति भोर ॥ त्रासते आति चपल गोकुल सजल शोभित छोर । मीन मानौ वेधि वंशी करत जल झकझोर ॥ नंदनंदन जगतवंदन करत आंसू कोर। सूरदास सुमहरि मुख हित निरखि नंदकिशोर ॥ १३॥ धनाश्री ॥ चितैधौं कमल नयनकी ओर । कोटि चंद वारों या मुख छवि येहैं शाहके चोर।।उज्ज्वल अरुण असित देखतिहै दुहूं नैनकी को।मानौ सुधा पानके कारण बैठे निकट चकोर ॥ कतहि रिसात यशोदा इन्हसों कौन ज्ञानहै तोर । सुरश्याम बालक मन मोहन नाहिन तरुण किसोर ॥ १६ ॥ सारंग ॥ कवके बाँधे ऊखल दाम कमल नयन वाहिर करि राखे तू वैठी सुखधाम।हौं निर्दयी दया कछु नाहींलागि गई गृह कामादेखि क्षुधा ते मुख कुँभिलानो अति कोमल तनु श्याम ॥ छोरहु वेगि बड़ी विरियां भई वीतगये युग याम। तेरे त्रास निकट नहि आवत बोलि सकत नहिं राम।। जहि कारणभुज आपबधाये वचन कियो ऋपि ताम । तादिनते यह प्रगट सूरप्रभु दामोदर सोनाम ॥१७॥ गौणा वा होवे कर जिन हारको वदन छुवोरी । वारौ व ह रसना जिन वोल्यो तुकारी॥ ऐसी निर्मोही भई यशदान तोसी निरमोही देख्यो गोपाल लाल आयो क्यों हाथ पसारी।कुलिशते कठिन वाह चितरी छतियां अजहूं द्रवति ज्यों देखत उर मुरारी॥ कितिक गोरस हानि जाको त तोरति कानि डारयो तुहिं सूरश्यामके रोम रोम पर वारो ॥ १८॥ राग सोरठ ॥ यशोदा तेरो भलो हियोहै माई। कमल नयन माखनके कारण बाँधे उखल लाई॥ जो संपदा देव मुनि दुर्लभ सपनेहुदेइ न देखाई। याही ते तू गर्व भुलानी घर बैठे निधि पाई।सुत काहूको रोवत देखति दौरि लेत हिय लाई। अब अपने घरके लरिकासों इती कहा जडताई।वारंवार सजल लोचन भारी चितवत कुँवर कन्हाईकहा करों वलि जाउँ छोरती तेरी सौंह दिवाई।जो मूरति जल थलमो व्यापक निगम न खोजत पाई । सो मूरति तू अपने आंगन चुटकी देदै नचाई ॥ सुरपालक सव असुरसंहारक त्रिभुवन जाहि डराई । सूरदास प्रभुकी यह लीला निगम नेति नित गाई॥१९॥ केदारोदेखरी नँदनंदन ओरावासते तनु तृपित भो हरि तनक आनन तोर॥वारवार डरात तोको वरन वदनही थोर । मुकुर मुख दोउ नैन ढारत क्षणहि क्षण छवि छोर ॥ सजल चपल कनिका । पलक अरुण ऐसे डोरारसरे अंजभवर भीतरभ्रमतहै जनु भोलिकुटकैडरि देखि जैसे भये शोणि- तयोर। उरलै लगाइ वहाइ रिस जिय तजहु प्रथकि कठोर ॥ कछुक करुणा करि यशोदा करति निपट निहोर। सूरश्याम विलोकि यशुमति कहति माखनचोर॥२०॥ धनाश्री तिवते बाँधे उखल आनि । बालमुकुंदको कत तरसावति अति अंग कोमल जानि ॥ प्रातकालते वांधे मोहन तरनि चढ़े मध्यानि। कुम्हिलानो मुख इंदुदिखावति देखौ धौनदरानि।तरेत्रासते कोऊनछोरत अब छोरहु तुम आनि । कमल नयन बांधेई छोडे तृ बैठी मन मानि ॥ यशुमतिके मन सुखके कारण आपु बँधावत पानि । यमलार्जुनकी मुक्ति करन को सूरश्याम इह ठानि ।। २१ ॥ रागनट ॥ कान्हसों। -
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२३४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।