(१३६) सूरसागर। वचन विचित्र कमल दल लोचन कहत सरस वरवानी।अचरज महरि तुम्हारे आगे आवै जीभ ततं. रानी ॥ कहां मेरो कान्ह कहां तुम ग्वालिनि इह विपरीति नजानी । आवत सूर उरहनेके मिस देखि कुँवर मुसुकानी ॥ ७१ ॥ धनाश्री ॥ माखन मागत हैं यशुमतिसों। माता सुनत तुरत ले आई देति खवाइ मगन मन रतिसों ॥ मैया मैं अपने कर लेहौं धरिदे मेरे हाथ। माखन खात चले उठि खेलन सखा जुरे सब साथ ॥ मथुरा जात ग्वालिनी देखी चरचि लई हरि आइ । सूरश्याम ता घरके पाछे बैठिरहे अरगाइ ॥७२॥ धनाश्री ॥ मथुरा जातहों बेंचन दधियो- मेरे घरको द्वार सखीरी तबलौं देखति रहियो॥ दधि माखन द्वै माटअछूते सौंपतिहौं तुहि सहियो। और तो डर नाही या व्रजमें नंदसुवनसखि आवत लहियो।ये शुभ वचन निकट द्वै मोहन सुनिकरि उर सब गहियो । सूर पौरिलौ गई न ग्वालिनि कूदिपरयो दैहियो ॥७३॥नट। देख्यो जाइ श्याम घरभीतर । अबहीं निकसि कहति भई सो फिरि आई पुनि तुम्हरें डर ॥ सखा साथके चम की गए सब गह्यो श्याम कर धाइ। औरनि जानि जान मैं दीन्ह्यो तुम कहँ जाहु पराइं ॥ बहुत अचगरी करत फिरतही मैं पाए कार घात । वाह पकरि लैचली महरिपै करत रहत उतपात ॥ देखौ महार आपने सुतको कबहूं नाहिँ पत्याति । बैठे श्याम आपने भवनहि चितै चितै पछिततिरावांह पकरि तू ल्याई काको अति वेशरम गवारि । सूरश्याम मेरे आगे खेलत यौवन मद मतवारि ॥ ७ ॥ राग सारंग ॥ यशुदा तू जो कहतिही मोसों । दिनप्रति देन उरहनोआवति कहा तिहारो कोसों ॥ यहै. उरहनो सत्य करनको गोविंदहि गहिल्याई । देखन चली यशोदा सुतको द्वैगए सुता पराई ॥ तेरे हृदय नेक मति नाहीं वदन पेखिपहिचान्है । सुनुरी सखी कहति डोलतिहै या कन्या सों कान्है॥ तैं जो नाम कान्ह मेरेको सूधो है करि पायो । सूरदास स्वामी यह देखौं तुरत त्रिया द्वै आयो७५॥ राग गौरी ॥ रही ग्वालि हरिको मुख चाहि । कैसे चरित किये हरि अवहीं वार वार सुमिरति . करताहि ॥बांह पकरि घरते लैआई कहा चरित कीन्हें हैं श्याम । जात नवनै कहत नहिं आवै कहत महरि तू ऐसी वाम ॥ जानी वात तिहारी सबकी यशुमति कह्यो इहांते जाहि । सूरदास प्रभुके गुणं ॥ ऐसे बुद्धि करी तव जीती ताहि॥७६॥गौरी ॥श्याम गए ग्वालिनि घर सूनो। माखन खाइ डारि सब गोरस वासन फोरि सोरु हठि दूनो।वडो माट इक बहुत दिननिको तासु किये दशटूकोसोवत लरिक न छिरकि महीसो हँसत चले दै कूकआइगई ग्वालिनि तिहि औसर निकसत हरि धरि पायो। देखत घर वासन सब फूटे दही दूध ढरकायो।दोउ भुज धरि गाढ़े करिलीन्हें गई महरिके आगे। सूरदास अव बसै कौन ह्यां पति रहिहै व्रजत्यागे।।७७॥ विलावल । ऐसो हाल मेरे घरमें कीन्हो हौं लैआई तुम पास पकरिकीफोरे सब बासन घरके दधि माखन खायो जो उवरचो सोडारयो रिस करिके।।लरिका ॥ छिरकि महीसों देखो उपज्यो पूत सपूतं महरिके । बडो माट घर धरयो युगनिको सोउ टूक पांच | दश करिके ॥ पारि सपाट चले तव पाये हौं ल्याई तुम पास पकरिक। सूरदास प्रभु को यों राखो ज्यों राखिये गज मदको जकरिक।।७८॥कान्हरो ॥करत कान्ह ब्रज घरनि अचगरी । खीझति महरि । कान्हसों पुनि पुनि उरहन लै आवतिहै सिगरी ॥ बड़े बापके पूत कहावत हम वै वास वसत इक नगरी। नंदहुते ये बड़े कहहैं फेरि वसैहैं ये ब्रजनगरी ॥ जननीके खीझत हरि रोये. झूठेहि मोहि लगावत धगरी । सूरश्याम मुख पोछि यशोदा कहति सवै युवती हैं लँगरी ॥ ७९ ॥ सारंग ॥ नितही नित सब आवति उठि भोरे। मेरे वारेहि दोष लगावत ग्वालिन यौवन जोर दूध दही माखन के कारण कव गयो तेरी ओर ॥धनमाती इतराती डोलति सकुचति नाहिं करैअति शोर मेरो कन्हैया कहां
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