- दशमस्कन्ध-१० (१३५) कतिहै दुहुँकरन मथानी शोभाराशि भुजा गहि गाड़ी ॥ इत उत अंग मुरति झकझोरति अंगिया वनी कुचनसों मादी । सूरदास प्रभु रीझिं थकित भए मनहु काम सांचे भार काढ़ी ॥ १२ ॥ ॥ विलावल ।।गए श्याम तेहि ग्वालिनिके घर ॥ देखीजाइ मथति दधि गढ़ी आपु लगे खेलन द्वारे पर॥ फिरि चितई हार दृष्टि परिगए बोलि लिए हरुवे सूने घरालिये लगाइ कठिन कुचके विच गाढ़े चापि रही अपने कर ॥ उमंगि अंग अंगिया उर दरकी सुधि विसरी तनकी तिहि औसरातय भये श्याम वरप द्वादशके रिझैलई युवती वा छविपर ।। मन हरि लयो तनकस ढगये देखिरही शिशु रूप मनोहर । माखन लै मुख धाति श्यामके सूरज प्रभु रति पति नागर वर ॥६३॥ ग्वालिनि उर हनके मिस आइ॥ नंदनंदन तन मनु हरिलीनो पिन देखे क्षण रहयो न जाइ ॥ सुनहु महरिअपने सुतके गुण कहा कहाँ किहि भांति वनाइ । चोली फारि हारं गहि तोरयो इन वातन कहौ कौन बड़ाइ ॥ माखन खाइ खवावत ग्वालन जो उपरयो सो दियो लुदाइ । सुनहु सूर चोरी सहलीनी अब कैसे सहिजात ढिठाइ॥६॥सारंगाझूठहि मोहिं लगावति ग्वारि खेलत में मोहिं बोलि लियौहै दोउ भुज भरि दीनी अँकवाशिमिरेकर अपने कुच धारति आपुहि चोली फा।ि माखनआपुहि मोहि खवायो मैं कर दीन्हो दारिशकहा जाने मेरोवारोभोरोझुकी महरिदैदैमुख गारािसरश्याम ग्वालिनि मन मोयो चितै रही इक टकहि निहारि ॥६५॥ गोरीयाकवहिं करन गये माखन चोरी।जानति हौं जु कटाक्ष तिहारे कमल नयन मेरोइ तनकसोरी दिदै दगा बुलाइ भवनमें भेटतिभुज भार उरज कटो- री। उर नखचिह्न दिखावति डोलति कान्ह चतुर भए तू अतिभोरीमो घर आवति उरहनके मिस चितै रहति ज्यों चंद्रचकोरी । सूर सनेह जात नहिं हटक्यो नैननि प्रीति जाति नहिं तोरी॥६६॥ गौ। ॥ कहा कहीं हरिके गुण तोसों । सुनहु महरि अवही मेरे घरजे रंग कीने मोसों ॥ मैं दधि मथति आपने मंदिर गए तहां इहि भांति । मोसों कह्यो वात सुनु मेरी में सुनिकै मुसकाति ॥ बाह पकरि चोली गहि फारी भरि लीनी अकवारी । कहत न बने सकुचकी बातें देखौ हृदय उपारी॥ माखन खाइ निदार नीकी विधि इह तेरे सुतकी घात।सूरदास प्रभु तेरे आगे सकुच तनक द्वै जात ॥६७ ॥ गोडमलार ॥ ग्वालिनी श्याम तनु देखरी आपु तन देखिये । भीति जब होइ तब चित्र अवेरेखियो।कहां मेरो कुँवरहै पांचही वरपको रोइ अजहूँ पयपान मांगे। कहां तू ढीठ योवन मद सुंदरी फिरति अठिलाति गोपाल आगे। कहां मेरो कान्हकी तनकसी आंगुरी बड़े बड़े नखनिके चिह्न तेरे।मट करु हँसगो लोग अँकवार भुज कहां पाए तैं श्याम मेरे।।टगटगै मुख झुकी नयनहूं नागरी उरहनो देत रुचि अधिक बाढी । सुनहु सूर सर्वसुहरयो साँवरे अन उत्तर महार ढिग देति ठाढी॥६॥राग गौरी ॥ कतहो कान्ह काहूके जाताये सब बढ़ी गर्व गोरसके सुख सम्हारि वो- लति नहिं वाताजोइ जोइ रुचै सोई सोई तव मोपै मागिलेहु किन ताताज्योज्यों वचन सुन्यौ मुख अमृत त्यो त्यों सुख पावत सब गात ॥ कैसी टेव परी इन गोपिन उरहनके मिस आवति प्रात । सूर सकति हठि दोप लगावति घरहको माखन नहिं खात ।। ६९॥ बिलावल ॥ कान्हको ग्वालिनि दोप लगावत चोरातनक दधि माखनके कारण कयै गयो तेरी ओर ॥ तुमतो धन यौवनकी माती निलज भई उठि आवत भोर । लालकुँवर मेरो कछू न जाने तूहै तरुणि किशोर ॥ कापर नयन चढाये डोलति या ब्रजमें तिनका सो तोर । सूरदास यशदा अनखानी इह जीवन धन मोर७०॥ देवगंधार ॥ कान्हहि वरजति क्यों न नंदरानी । एक गावके वसत कहाँलौ करें नंदकी कानी । तुम जो कहतहो मेरो कन्हैया गंगाकोसो पानी । बाहर तरुण किशोर पैस वर वाट घाटको दानी ॥ -
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२२८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।