दशमस्कन्ध-१० कानि । दिनप्रति कैसे सही परतिहे दूध दही की हानि ॥अपने या बालककी करनी जो तुम देखो आनि । गोरसखाइ टि सब वासन भली करी यह वानि ।। मैं अपने मंदिरके कोने माखनराख्यो जानि । सोई जाइ तुम्हारे लरिका लीनोह पहिचानि ॥बूझीग्वालिनि घरमें आयो नेकु न संकामानी। सूरझ्याम तव उतर बनायो चींटी काढतु पानी ॥ ४६॥ गौरी ॥ आप गए हरुए सूने घर । सखा सबहिं वाहरही छांडे देख्यो दधि माखन हरि भीतर ॥ तुरत मथ्यो दधि माखनपायो लेले खात धरत अधरनिपर । सेनहुदे सब सखा बुलाए तिनहिदेत भरि भरि अपने कर ॥ छिटकिरहीदपि बूंद हृदय पर इत उत चितवत कार मनमें डर । उठत ओटते लेत सवनि ले पुनिले खात दत ग्वालिनिवर ॥ अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई अति उर आनंद भरि । सुरश्याम मुख निरखि थकित भई कहत न बने रही मनमें धरि ॥४७॥ धनाश्री ॥ गोपाल दुरेहैं माखनखात । देखि सखी शोभाजु वनी हे श्याम मनोहर गात। रठि अवलोकि ओट ठाढे हैं जिहि विधि हैं लखि लेत । चकृत वदन चहूं दिशि चितवतह और ससनको देत ॥ सुंदर कर आनन समीप अति राजत इहि आकार । मनो सरोज विधु घर वंचि करि लिये मिलत उपहार ॥ गिरिगिरि परत वदनके ऊपर दधिसुतके विदु । मानह सुभग सुधाकन वरपत विजमों आगम इंदु ॥वाल विनोद विलोकि सर प्रभु सिथिल भई व्रजनारि । फुरे न वचन वरजिवे कारन रही विचार विचारि॥४०॥ सारंग ॥ ग्वालिनि जो घर देखे आइमाखन खाइ चुराइ श्याम तब आपुनरझो छपाइ ।। ठाठी भई मथानियांके ढिग रीती परी कमोरी। अवहीं गई आई इन पाँइनि ले गयो को कार चोरी॥ भीतर गई तहां हरि पाए श्याम रहे गहि पाई । सूरदास प्रभु ग्यालिनि आगे अपनो नाम सुनाई ॥ १९ ॥ गौरी ॥ जो तुम सुनहु यशोदा गोरी । नंदनंदन मेरे मंदिरमें आजु करन गए । चोरी ॥ हों भई आनि अचानक ठाढी कह्यो भवनमें कोरी । रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वे भई सहजमति भोरी ॥ जवगहि बाँह कुलाहाल कीनो तब गहि चरण निहोरी । लागे ले नेनन भार आंमू तव में कान न तोरी । मोहिं भयो माखनको संशय रीती देखि कमोरी ॥ सूर दास प्रभु देत दिनहुँ दिन ऐसी लरि कस लेरी ॥५०॥ सारं ॥ जानि जुपाए ही हरि नीके । चोरि चोरि दधि माखन मेरो नितप्रति गीधिरहे या छीके ॥ रोक्यो भवन द्वार व्रज सुंदरि नूपुर नांदे अचानकहीके । अब कसे जयतु अपने वल भाजन दूध दही मेरो पीक ।। सूर श्याम प्रभु भले परे फंद देउ न जान भाव ते जीके । भरि गंडूक छिरकदै नेननि गिरिधर भाजि चले दे कीकै ॥ ५१॥ रामकली ॥ माखन चोर री में पायो । मे जुकही सखीहो तुकहाहै भाजन लगत झुंझायो॥ जो चाहो ताजान क्यों पसे बहुत दिननु हे खायो । वार वार हौं ढूंकालागी मेरी घात न आयो ।नोई नेत की करो चमोटी चूंघट में डरवायो । विहँसत निकसिरही दोदतिया तबले कंठ लगायो।मेरे लाल को मारिसके को रोहिनि गहि हलरायो॥ सूरदास प्रभु वालकलीला विमल विमल यश गायो॥ ॥५२॥ राग नट ॥ देखि ग्वालिनि यमुना जात । आपु ता घर गए पूछन कोनहे कहि वात ।। जाइ देखे भवन महियां ग्वाल वालक दोइ । भीर देखत अति डेराने दुहूं दीनों रोइ।। ग्यालके कांधे चढ़े तब लिए छीके उतारि । दहयोमाखन सात सब मिलि दूध दीनों डारि ॥ वच्छले सब जोरि दीने गए वन समुदाइ । छिराक लरिकनु दहीसों भरि ग्वाल दीने चलाइ ॥ देखी आवत सखी घरकों सखा गए सब दोरि । आनि देखे श्याम घरमें भई टाढी पौरि ॥ प्रेम अंतर रिस भरयो मुख युवति झति वात । चित मुखतन सुधि विसारी कियो उर नख पात ॥ अतिहिरिसवश भई ग्वालिनि गेह देह विसारि । सूर प्रभु भुजगहे ल्याई महरिसो अनुहारि ॥ ५३॥ गौरी ॥ महरि - %3D% 3D %3D D
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