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१७ - श्रीसूरदासनीका जीवनचरित्र। तिनहुँ मध्य तव कर त्रिय जोई। सो निज सकुचलाज सब खोई ॥७॥ मोहिं सन करहिं रुचिर संभाषा। होहिं तुरंत बहुरि मृत तासा॥ साह सुनत अस दीन रजाई । महिपी सुनत सकल चलिआई॥८॥ एक एक करि नम्र प्रणामा । चली जात भामिनि निजधामा॥ आई एक सबन ते पाछे । पतिप्रिय रूपललित गुणआछे॥९॥ दो-निरखत सन्मुख हर्पवश कहिसि वदन मुसकायोकहितें कीन आगमनतुव, मोर मर्म कछुपाय।। चौपाई-देखत कहि ससूर तिहि ओरा । शुभ्रे मोहिं मर्म सब तोरा॥ भामिनि सुनत चरण गहि लीने देखत सवन प्राण तजि दीने ॥१॥ महिषी आन देखि अस तासा । लागी रुदन करन संभापा ॥ साहु व्यथित मानस विसमायो। धरतधीर पुनि बदन अलायो॥२॥ पन्दहुँ वार वार अब तोहीं। भगवन करहु कथन सब मोही । को इह रही भवन मम भामा । जहि अस तज्यो वपुप निष्कामा ॥३॥ तव पूर्ववतहि कथा सुहायन । लागे सूरदास मुखगायन ॥ इह मधुरा पुरि वसहि सुहाई। वीर वधू सब लोगन गाई ॥१॥ हाव भाव कल निरत परायन । कला प्रवीन परम कटु गायन ॥ सभा महिंद्र धनक जन जाई । निज प्रभाव गुण लेत रहाई ॥५॥ काह धनाव्य काल शुभ पायो । पाणिग्रहण निज सुवन रचायो । इहि कहँ पढ्यो बोलि सन्माना। लाग्यो होन नृत्य कलगाना ॥६॥ करि निज कला ललित चतुराई। मृर्छित सभा कीन समुदाई ॥ तब कोउ आन देशकर राई । इहि नृत गीत देखि चतुराई ॥७॥ निज पुर गयो लेत हरपाना । पावा तहाँ विविध सन्माना॥ एक दिवस रत नृत्य अगारा । देखि सरुचिर धरणिपतिद्वारा ॥ ८॥ सजि शृंगार आभरण सोहन । ठाढी मनहु मान रति मोहन ॥ चारि ओर परिवारत दासी । सेवइ सुखद रूप गुण रासी ॥९॥ अस प्रभाव हग देखि सुहावा । तेहि कर हृदय मनोरथ छावा ।। हमहुँ होव इहि सम कस रानी । अस विचारि मानस सकुचानी ॥१०॥ इन कर भूप पुण्य संसारा । हमहुँ अधम धिग जनम हमारा ॥ पुनि देखिस छित पत पटरानी। देत दान दीनन रति मानी ॥१॥ दो:-धन भूपण पट भक्तियुत,करत सकल सेवकाइअितिथि संत आवत सदन,भोजन देहुँ जिवाइ॥ हमहुँकरव यदि पुण्य अस,कहत गुणत जियमाहितो पावहुँ संशय नहीं भूप पतनि पद काहिं चौपाई-अस प्रकार पावन शुभ तासा । ललित दान रुचि हृदय प्रकासा ।। तब तहिं देवयोग कर आई । ज्वररुज उपज प्रवल दुखदाई ॥१॥ पुनि पंचत्यभाव कह सोई ।प्रापत भई व्याधि सब खोई ॥ धर्म दूत रौरव तेहि डारयो । तहाँ भोग निज कृत अगसारयो॥२॥ सुर पुर गवनि बहुरि हरपाती। अपसर नृत्य गीत कलराती.॥ -