दशमस्कन्ध-१० (११७) गई मथनिया मागनरी ॥ बालदशामुख कमल विलोकत कछु जननी सों बोलैरी । प्रगटत हँसत दंतियां मानौ सीप दुरेदल ओलेरी ॥ सुंदरभाल तिलक गोरोचनमिलि मसिविंदुक लगौरी । मनो मकरंद अचै रुचिक अलि सावक सोई नजाग्यौरी । कुंडललोल कपोलन झलकत मनो दर्पणमें झाईरीरही विलोकि विचारि चारु छवि परमिति काहु नपाईरी । मंजुल तारनकी चपलाई चितु चतुरानन करपैरी।मनो शरासन समर धरे कर भौंह चढे सरवरपैरी । जलधि थकित जनौं काग कपोत ज्यों कुलन कबहुं आयोरी । नाजानौ केहि अंग मगन मन चाहि रह्यो नहिं पायोरी । कहां लगि कहौं बनाइ वरणि जितनी छवि निरखत हारीरी । सूरश्यामके एक रोमपर देहु प्राण वलि हारीरी ॥ २३ ॥ राग धनाश्री ॥ यशोदा तेरो चिरजीवहु गोपाल । वेगि वढोवल सहित वृद्धलठ महरि मनोहर वाल ॥ उपजि परयो इह कोखकर्मवश मुंदी सीप ज्यों लाल । या गोकुल के प्राणजीवन वैरिनके उरशाल ॥ सूर कितो मन सुख पावतहै देखे श्याम तमालारुजि आराति लागो मेरी अखियन रोग दोख जंजाल ॥ २४ ॥सारंग आसावरी आजुगई हों नंदभवनमें कहा कहों ग्रहचै नुरी । वहुअंग चतुरंग छलमो कोटिक दुहियतु धेनुरी ॥ घुमिरहे जित तित दधि मथना सुनत मेघ ध्वनि लाजैरी।। वरणों कहा सदनकी सोभा वैकुंठहूते राजैरी।।वोलिलई नववधू जानिकै खेलत जहां | कन्हाईरी । मुखदेखत मोहनीसी लागत रूप नवरण्यो जाईरी।। लटकन लटकि रहे धूऊपर पंचरंग मणिगण पोहेरी । मनहु गुरु शनि शुक्र एक होइ लाल भाल पर सोहैरी ॥ गोरोचनको तिलक निकटही काजरविंदुकु लाग्यौरी । मानहु कमल गुपाय राग रस निशि अलिसुत सोइ जाग्यौरी ॥ विधुआनन पर दीरघ लोचन नासा लटकत मोतीरी । मानौं सोम संग करिलीनौं जानि आपनो गोतीरी।सीपजमाल श्याम उर सोहै विच वघना छविपार्वरी। मानौं द्वैजशशिनक्षत्र सहितहै उपमा कहत न आवैरी । वरणों कहा कहा अंग अंग सोभा भाव धरौ जलराशीरी ॥ वाल लाल गोपाल हि वर्णत कविकुल करिहै हांसीरी। सोभासिंधु अगाधवोध बुधउपमा नाहिन औररी।रूपदेखि तनु थकित रहीहो मनों भइभरको चोररी॥जो मेरी अखियां रसना होती कहती रूप बनाइरीचिरजीवो यशुदाको नंदन सूरदास वालजा इरी ॥२५॥ बलभद्रवचन ॥ विलावर ॥ कलवलते हरि हारपरे । नवरंग विमल जलद पर मानौं द्वैशशि आनिअरे । तव गिरिकमठ सुरासुर सहि धरत न मनमे नेकडरे । तिन भुज भूपन भार परत कर गोपिनके आधार धरे ॥चंद्रवदन मानौंमाथिकान्यो विहँसनि मनहु प्रकाशकरे ॥ सूरश्याम दधि भाजन भीतर निरखत मुख मुखते नटरे ॥२६॥ मथत दधि मथनी टेक रह्यौआरि करत मटुकी गहि मोहम वासुकि शंभुडरयोमिंदिर तरत सिंधु पुनि कांपत फिरि जनि मथन करें। प्रलयहोत जान गहो मथानी प्रभु मर्यादटरै ॥ सुरअरि सुर ठाढे सब चितवें नैननिनीर ढरै ।सूरदास प्रभु मुग्ध यशोदा मुखदधि विंदु गिरै॥२७॥राग धनाश्री जब मोहन करगही मथानी परसत वार दधि माट नेतचित उदधिशैलवासुकि भय मानी।कबहुँक अहठ | परग करि वसुधा कवहुक देहरी उलंधि नजानी ॥ कबहुक सुर मुनि ध्यान नपावत कबहू खिला वति नंदकी रानी । कबहुँक अपर खिरनही भावत कबहू मेखली उदर समानी ।। कबहुक आर करतमाखन की कबहुँक भेप दिखाइ विनानी। कवहुँक अखिल उदर नहिं ताप्त कवहुँक दल माखन रुचि मानी।सूरदास प्रभुकी यह लीला परत नमहिमा शेप बखानी॥२८॥राग विलावल ॥ नंदजूके वारे कन्हैया छांडिदे मथनियावार वार कहै मात यशोमति रनिया ॥नेकरहो माखन दउँ मेरे प्राण धनिया । आरि जिनि करौ वलिजाउंहो निधनीके धनिया।सुर नर जाको ध्यान धरै गावे
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