दो०-अब मथुरा तुव गवन करि,मोरचरित गुणगान ॥ करि गायन भवपूर्ववत,विचरहु अभयसुजान१
चौपाई-सुनि प्रभुवचन सुखद अभिरामा। सूर दंडवत करत प्रणामा॥
बोल्यो आज धन्य जगदीना । जोहिइन दृगन दरश प्रभु कीना ॥१॥
मुनि योगिन सुर दुर्लभ जोई । मोरे सुलभ आज जग सोई ॥
अब न दैव कछु संसृति कामा। एक स्मरण तोर अभिरामा ॥२॥
मोरे हृदय लालसा छाई । विसरहिं सो न भक्त सुखदाई ॥
अरु तुम्हार माया बलवाना । करहिं न मोहि मुग्ध भगवाना ॥३॥
हे कृपालु कल कमल विलोचन । हृदय भक्त जन सोच विमोचन ॥
जिन नयनन अस रूप तुम्हारा । मैं प्रत्यक्ष प्रभु लीन निहारा ॥४॥
तिनसन जगत विलोकन काहीं। दीनदयालु मोर रुचि नाहीं॥
ताते करहु पूर्ववत मोरे। दृग विहीन वन्दहुॅं प्रभु तोरे॥५॥
तुव स्वरूप नित दीन सनेह । देखत रहहुॅं दिवस निशि एहू॥
करि अस विनय वदन अनुरागा। भयो विराम सुर वड़भागा॥६॥
बोले कृष्ण भक्त चित चोरा । सूर कथन सब सन्तत तोरा ॥
होहिं सत्य संशय कछु नाहीं। भाषि वदन अस त्रिभुवन साई ॥७॥
भये लुप्त प्रभु भक्त उवायों। उठे सूर जनु स्वप्न विचायो॥
युगल अंध लोचन निज पायो । प्रभु पद शीश मनहिं मनभायो॥८॥
निज कल्पित पद पावन चारू। लग्यो करन गायन मन हारू॥
उदय अरुण तजि विपिन सिधाए । यमुना तीर भक्त वर आए॥९॥
करि स्नान गुण गण प्रभु गाते । मथुरा आय भक्ति मद माते॥
भजन प्रभाव देखि अधिकाई । सादर करहि लोक सेवकाई॥१०॥
दो॰-सबकर हित जिय मानिनिज , द्विज विरक्त संसारारटन कृष्ण गुणगण निरत सूर , भक्त व्रतधार
चौपाई-अवसर एक मलेक्ष सुहावा । विदित दिलीश लोक सब गावा॥
संयुत भक्ति प्रीति हरषाए। तासु सूर जन लीन बुलाए ॥१॥
आवत देखि भक्त अभिरामा । शाह कीन उठि दंडप्रणामा ॥
सादर शुचि आसन बैठारे। भक्ति पूर्वक वचन उचारे ॥२॥
तुव यादव प्रभु लोगन गाए । भक्त कृष्ण भगवान सुहाए॥
मोर प्रश्न कर दीन सनेहू । देहु उतर उर हरहु संदेहू ॥३॥
सदन मोर प्रभु अगणित भामा । एकते एक सरस अभिरामा॥
तिनहुँ मध्य यादव कुलवारी। ऐहि कोउ किन भक्त मुरारी ॥४॥
सुनि दिलीश अस कथन सुहावा । सूर वदन अस वचन अलावा॥
सुनहु धरणिनायक बड़भागी। करहुँ कथन कछु तुव हितलागी॥५॥
जिहिते तोर मनोरथ एहा। अवहि होहि फुर विगत संदेहा॥
इह तुम्हारि संकुल वरनारी। तुमहिं देखि पुनि मोहिं निहारी॥६॥
क्रम ते एक एक अस आई। करहिं गमन इत मारग राई॥